बात बहुत पहले की है। दूर पहाड़ों में रम्मू नाम का एक छोटा लड़का अपने माँ- पिताजी और दादी के साथ इन्हीं में से एक पहाड़ी की चोटी के निकट रहता था। रम्मू के पिताजी का एक छोटा सा खेत और एक फलों और सब्ज़ियों का बाग़ था जिससे रम्मू के परिवार की लगभग सभी ज़रूरतें पूरी हो जाती थीं. रम्मू भी खेती- बाड़ी के काम में अपने पिताजी का हाथ बंटाता था ।
जिस पहाड़ी पर रम्मू रहता था उसपर चारों ओर एक घाना जंगल था। जंगल में रसभरे लाल सेबों के पेड़, रसीले लुकाट और खुबानियों के पेड़ों के साथ घने आबनूस के काले तनों वाले विशाल वृक्ष भी थे। साथ ही इस जंगल में पहाड़ी बकरियां , याक, जंगली हिरण, सियार भी रहते थे, लेकिन इनसे मनुष्यों को कोई डर न था क्योंकि वे कभी भी मनुष्यों पर हमला नहीं करते थे।
मुसीबत थी तो सिर्फ एक चतुर चालाक लोमड़ी से जो रम्मू के लिए बहुत बड़ी परेशानी थी क्योंकि उस जंगल को पार कर पहाड़ी की तलहटी में उसकी नानी और मामा का घर था और रम्मू उनसे मिलने जाना चाहता तो अपने पिताजी के साथ ही जा पाता था।
कुछ दिनों से रम्मू को अपनी नानी और मामा की बड़ी याद सता रही थी और नानी के हाथों के बने रसभरे गुलाब जामुन और मेवा कचौड़ी खाने को उसका मन भी मचल उठा था। जब रम्मू के सब्र का बांध टूटा तो उसने पिताजी से उसे नानी के घर लेकर जाने की गुज़ारिश करी लेकिन उसकी गुज़ारिश पिताजी ने मंज़ूर न करी क्योंकि उन्हें सब्ज़ी और फल के बाग़ में निराई- गुड़हाई का काम समय रहते पूरा करना ज़रूरी था और दुष्ट लोमड़ी के दर से वे उसको अकेले नहीं जाने देना चाहते थे।
रम्मू अपनी निराशा समेटे अपने कमरे में एक कोने में बैठ गया । अचानक उसे एक तरकीब सूझी और दौड़कर माँ के पास जाकर उन्हें बाग़ में से एक सबसे बड़े और गोल-ममटोल कद्दू को लेकर उसे देने को कहा। माँ ने पूछा के तुम इतने बड़े कद्दू का क्या करोगे तो उसने एक रहस्यमयी हंसी हंसकर उनसे कहा की आपको कुछ ही देर में सब पता चल जायेगा. माँ बाग़ से एक विशाल गोल-मटोल कद्दू ले आईं।
रम्मू ने चाकू से कद्दू के दो बराबर हिस्से किए और उसके अंदर के गूदे को निकाल फेंका और उसकी दीवार में दो- चार छेद बनाये जिससे कद्दू के अंदर हवा जा सके और फिर स्वयं कद्दू के अंदर दुबक कर बैठ गया और माँ से कहा की दोनों हिस्से जोड़कर एक पतली मज़बूत रस्सी से बांधकर कद्दू को पहाड़ी से नीचे की तरफ लुढ़का दें। माँ अपने बेटे की चतुराई पर बहुत प्रसन्न हुईं और एक हलकी लात से उन्होंने कद्दू को नीचे के तरफ धकेल दिया।
कद्दू लुढ़कता ठुमकता हुआ जंगल पार करता हुआ पहाड़ी की तलहटी में कुछ ही समय में जा पहुंचा। रम्मू ने छेद में से झांककर देखा तो सामने ही उसकी नानी का घर था।रम्मू की ख़ुशी का ठिकाना न था और उसने जल्दी से चाक़ू से रस्सी काटी और दौड़कर नानी के पास पहुँच गया। उसे देखकर नानी और मामा ख़ुशी से फूले न समां रहे थे।
बस अब रम्मू नित- प्रति नयी खाने की फरमाइशें करता और नानी बड़े लाड़-प्यार से उसके मनपसंद व्यंजन बनाकर खिलातीं। ख़ुशी- ख़ुशी दिन कब बीत गए यह रम्मू को पता ही न चला और एक दिन पिताजी उसे घर वापिस ले जाने के लिए आ पहुंचे।
अगले दिन वापिस जाना था तो रोज़ की तरह देर रात तक रम्मू नानी से कहानियां सुन रहा था कि अचानक लोमड़ी की खिसियानी आवाज़ रम्मू के कानों में पड़ी तो उसने नानी से पूछा कि आपको दुष्ट लोमड़ी से दर नहीं लगता है क्या ?
नानी बड़े ज़ोरों से हंसी और बोलीं, " न में शेर से डरती, न सियार और दुष्ट लोमड़ी से, डरती तो बस उस हुर्र- हुर्र वा से जो अक्सर रात को मेरी तीन की टपरी पर आकर मुझे खा जाने की धमकी देता है "। नानी का इशारा तेज़ पहाड़ी हवा की तरफ था जो उनके टीन के टप्पर पर हुंकारती रात के समय अक्सर चलती थी "।
यह बात चंट लोमड़ी के कानों में भी पड़ी और वह सोचने लगी कि यह हुर्र- हुर्र वा तो लगता है कि शेर से भी ज़्यादा ताकतवर और भयंकर होगा और ये सोचकर ही डर के मारे अपनी पूँछ टांगों के बीच दुबका कर उस जंगल से हमेशा के लिए भाग खड़ी हुई।
जब कई दिन जंगल के जानवर और तलहटी के निवासियों ने चालाक लोमड़ी को नहीं देखा तो समझ गए कि अब वो जंगल से भाग निकली है और वे सब यह जानकर ख़ुशी से झूम उठे।
सभी निवासियों ने इस ख़ुशी में खूब जश्न मनाया और फिर सभी आगे के दिन हंसी- ख़ुशी से जीने लगे...
©️ जूही प्रकाश सिंह
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