साल 2007,
मेरे लिए हर मेरे परिवार के लिए सबसे दुःखद और भयानक साल था....गाँव के प्राथमिक विद्यालय में कक्षा पाँचवी का छात्र था मैं...!
होनहार और मेहनती... साल 2007 के दौर में अगर लौट कर देखा जाए तो आज के दौर के लिए किसी गुज़रे ज़माने से कतई कम न लगेगा... जहाँ आज सबके हाँथो में मोबाइल है,इंटरनेट है और हर गांव गली मोहल्ले की बिजली.... आसमान में सूरज और चांद से कम नहीं हैं...।
लेकिन वहीं साल 2007 में , ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन के सामने पूरे परिवार के साथ बैठ कर कोई भी धारावाहिक देखने का आनंद और मतलब दोनों ही अलग था...
साल 2007 में जुलाई महीना जो आमतौर पर स्कूल के शुरुआती महीने में जाना जाता है,यही एक महीना ऐसा है जिसमें इतवार के अलावा आपको कोई और छुट्टियां नहीं मिलेगी शायद इसीलिए इसको स्कूल की अगुवाई के लिए चुना गया ?
ख़ैर एक भी छुट्टी न होने के कारण मुझे भी स्कूल रोज ही जाना था ....सुबह तैयार होकर हाँथो में बोरी का बस्ता लेकर और और जेब में कुछ सिक्के,और दिल मे कुछ अरमान ...लेकर निकल गया स्कूल के लिए ...समय तक़रीबन 2 बजकर 15 मिनट के आसपास था जब मैंने साकेत को दौड़ते हुए अपनी कक्षा की ओर आते देखा, साकेत बोल नहीं सकता था लेकिन उसनें इशारों से मुझे समझाया ....मैं आनन फानन में बस्ते में कुछ किताबें ही भर पाया था और दौड़ते हुए घर पहुंचा लेकिन तब तक देर हो चुकी थी...और वह देरी आज भी चुभती है....एक दिन बिता ....दूसरा दिन बीता.. और चुभन बढ़ती ही गयी...हर रोज शाम को बस एक ही ख़याल आता था...काश मैं सोकर उठूँ और ये सपना हो या काश मेरे पास टाइम मशीन हो जिससे मैं सब ठीक यर सकूँ...!
प्रतिदिन यही ख़याल आता काश कोई टाइम मशीन जैसी चीज़ मेरे पास भी होती तो मैं ठीक उसी दिन फिर वापस जाता और बचा लेता अपनी माँ को....बस यही एक टीस सी रह गयी दिल मे काश मैं स्कूल ही न गया होता उस दिन... रुक जाता अपनी माँ के पास और न जाने देता उनको ख़ुद से दूर.... या फिर अगर टाइम मशीन होती मेरे पास तो मैं ले आता अपनी माँ को आज अपने पास ....उस दौर से गुज़रने ही नहीं देता...
सच ही है...
उसके क़िस्मत के आसमां का चाँद भी साथ होता है,
जिसके सर पर माँ का साया और आशीर्वाद होता है।
✍️ गौरव शुक्ला'अतुल'
(JahajiSandesh)
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