मिटते निशां

सत्य है,अटल है और अमिट यह सत्य इस धरा का है,

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Hem Lata Srivastava
Hem Lata Srivastava 22 Jun, 2021 | 1 min read


सत्य है,अटल है और अमिट यह सत्य इस धरा का है,

 एक पुत्र को हमेशा वंश चलाने वाला कहा गया है ,

आज सुनाती  हूँ मैं सच्ची एक कथा है ,

एक कुल चलाने वाले के फना हो जाने की यह दर्द भरी दास्ताँ है,

एक वंश चलाने वाला लावारिसों की तरह फना हो गया है,

इस खबर ने मेरी पैरों तले जमीन को खिसका लिया है

एक पिता के सपनों को साकार करने वाले पुत्र की यह हकीकत बयां करने जा रही हूँ ,

हो जाएँ आँखें नम तो खुद से गिला न करना,

दूसरों के दुःख में रोता है हर कोई यहाँ पर ,

इंसान वो तो था सच्चा ,नेक और रहमतों से भरा  था उसका भी दिल ,

अपनों को तो मोहब्बत करता है हर कोई,

वो तो बहाता  था आँसूं दूसरों की खातिर भी ,

जीवन के नए अध्याय को शुरू करने को कदम जब उसने रखा था ,

हर ख़ुशी और गम को साथ कसमें उसने भी पत्नी संग खायीं थी ,

हर वचन बखूबी निभाता चला जा रहा था ,

नहीं था मालूम वो इतना खुशनसीब भी न था ,

दूसरों पर स्नेह लुटाने वाले को हर ख़ुशी के लिए भी तड़पना था,मालूम न था ,

अपने आँगन में गूंजे एक किलकारी ऐसी उसने भी की थी तमन्ना ,

साल दर साल बीतते रहे न हुआ आबाद उसका आँगन था ,

मंदिरों में भी उसने मस्तक अपना झुकाया था ,

मस्जिदों में भी उसने मस्तक था उसने रगड़ा ,

गिरिजाघरों की घंटियों का नाद से दिल अपना हल्का किया था ,

नहीं था कोई दर ऐसा जहाँ उसने न शीश नवाया था ,

पुकार उसकी एक रोज आसमान के फ़रिश्ते ने कुछ इस तरह सुनी थी ,

आँगन में फूल उसके भी एक रोज खिल ही गया था ,

किलकारियों से उसके मन का दरबार खिल गया था ,

अपनी हर ख़ुशी वो अपनों संग झूमते -गाते मना रहा था ,

माता -पिता का लाडला खिलखिलाते हुए यूँ बढ़ रहा था ,

वक्त बीतता रहा था ,माता पिता के साये में वो पुत्र बढ़ रहा था ,

माता के आँचल  को छोड़ वो अब रफ्ता -रफ्ता बढ़ रहा था ,

घुटनों पर चलने वाला पैरों पर खड़ा हो ये कोशिशें कर रह था ,

ऊँगली पकड़ स्नेह भरे पिता ने उसे चलना सिखा दिया था ,

तोतली सी आवाज में माँ- पापा भी कहना वो अब सीख गया था ,

उसकी हर अदा पर उनका दिल गदगद हुआ पड़ा था ,

आँखों के तारे की हर गलतियों को,

उन्होंने यूँ ही नजरअंदाज कर दिया था ,

जानते न थे जिंदगी में उनका सबसे बड़ा गुनाह यही था ,

वक्त बदला पुत्र ने भी यौवन की दहलीज में कदम रख दिया था ,

गलतियां थीं जो छोटी अब गुनाह को दस्तक दे रही थीं ,

हर रोज हर ओर से शिकायतों का सिलसिला यूँ चल पड़ा था ,

पिता की चिंता का सबब अब दिन-बी-दिन बढ़ता ही जा रहा था ,

आहिस्ता-आहिस्ता ही सही पुत्र के कदम लड़खड़ाने लग गए थे ,

अंधी थी माँ की ममता अब भी न सम्हल रही थी ,

हर गलतियों पे पर्दा यूँ डालती जा रही थी ,

सबका दुलारा था जो सबकी आँखों में अब खटक रहा था ,

हर रिश्ता उससे अपना अलग होता जा रहा था ,

पिता का था जो लाडला अब नशे के दलदल में धंसता ही जा रहा था ,

हर गम को दिल में दबाये एक रोज पिता ने जहाँ को छोड़ दिया था ,

आमदनी का अब तो कोई जरिया न रह गया था ,

माता की ममता ऐसी अंधी अब सम्हल न रही थी,

साजो-सज्जा का हर सामान ,बाजारों की शोभा बढ़ाने लग गया था ,

नशे की जंजीरों ने उसको कुछ तरह से जकड़ लिया था ,

घर का हर बेशकीमती सामान अब बेक़ीमत ही बिका जा रहा था ,

माँ की ममता ने उम्मीद का दामन  अब भी न छोड़ा था ,

 पता न थो उसको उसको ही एक रोज बेघर करने की फ़िराक में वो पुत्र जी रहा था

गम की आंधियों में कब तक वो खुद को सम्हाल पाती ,

एक रोज उसका साया उस पुत्र के सर से उठ गया था,

 

 सुना था मैंने ऐसा वो बेसहारा  अब दूसरों के टुकड़ों पर पल रहा था ,

अपना सब था जिसका दूसरों का हो गया था ,

घर का तिनका -तिनका बिका वो छोड़ो उसका तो अब घर भी न रह गया था ,

जियेगा कैसे अब ये किसी को समझ न आ रहा था ,

तन उसका जर्जर ईमारत सा हुआ चला जा रहा था ,

एक रोज ऐसा आया उसने भी दम अपना तोड़ दिया था ,

खबर सुनी तो आँखों का कोर मेरा भी नम हुआ था ,

कुछ तो रिश्ता मेरा भी था,गोद में अपनी मैंने भी तो खिलाया  था ,

शव को उसके हस्पताल में लवारिसों सा रखा गया था ,

तोड़ गए थे अपने  जो नाता उससे, आकर उन्होंने उसके शव को ,

दो गज जमीन तो नसीब करा कर कुल का नाम भी दिया था ,

कब क्या हो ,कैसे हो ,नहीं मालूम किसी को ,

इस जीवन की यही सत्यता है ,

पर हाँ यह भी एक सत्य था  एक कुल चलाने वाला ही नासूर बन गया था ,

अपनी ही  माता पिता का नाम को वो डुबा गया था। ……

 


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