बरगद की छांव
इक डोरी में बांधे रखते
वो हर दिल को थामें रखते
जड़े उनकी मजबूत होती
छांव में उनकी सब बड़े होते
हंसी, ठहाका सब लगाते
आँख- मिचोली खेला करते
तंहाईयों का था न कोई ठिकाना
बरगद की छांव का था तब जमाना
न कोई चिंता ,न कोई फिक्र
लगते थे खूब हंसी-ठहाके
अपना ही दिन होता अपनी ही होती रातें
गुड़, मक्खन खा जिंदगी की
हर धूप के मजे लेते
न कोई ताला, न कोई चाबी
खुले सबके घर होते
किस्से हर कोई अपने कहता
"बरगद की छांव" का था जमाना
पत्ते सारे बिखर गये है
सब अपने में सिमट गये है
छांव भला फिर कैसे आये
बरगद "हमारी राह देख रहा
खुद को रिश्तों में समेट रहा
सहज न उस को होना आए
अपनी छांव फिर कैसे लाएं।
एकता कोचर रेलन
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.