पसीने की बूंदे सुख गई खेतो में
हाथ मेले हुए काले धन में
मीठी ये जली रोटियां चूल्हे की
ठंडे ये गले सूखे ब्रेड पैकेट के
सूखे ये आसमान खेतो पर
बरस रहे फव्वारे मेदानो पर
राते आसमान के नीचे दिन निकले पेड़ों से
प्रकृति के समीप रहने से, गरीबी का एहसास न हुआ
AC के बंद कमरों में हुआ एहसास अमीरी का
नुकसान हुआ प्रकृति का
मेहनत में दिन सारा बीत गया चेन की नींद आई खटिए पर
व्यस्तता में बिता दिन सारा बैचेनी में बीती रात स्लीप वेल के गद्दी पे
डब्बे में सिक्के ,नोट फटे गले 2000 रुपए
इंतजाम हुआ राशन का सुकून मिला महीने का
डेबिट क्रेडिट में उलझ गए राशन का कोई पता नहीं
पता चला राशन का लाने वाले का कोई पता नहीं
निकला एक वर्ष दो धोती में खर्च हुए पगड़ी पे
बांधे साफा इज्जत का सरताज लिए
निकला एक वर्ष 365 कटे कपड़ो में
खर्च हुए बाहरी पहनावों पे
बांधे मुखौटा अभिमान का नजराना लिए।
दक्षल कुमार व्यास
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