कचोट रहा था आरती को नमित का यह अविश्वास, कितना अकेला कितना कितना दोषी महसूस कर रही थी वह| पर वह नहीं है दोषी, क्या कहे? खिड़की पर खड़ी सोच रही थी। कितनी खिन्नताओं का जितने खालीपन का सामना आज तक किया था उसने| यह खिड़की ही तो थी जो उसके सारे मनोभावों की साझेदार। किससे कहे अपने मन के भीतर उठते विचारों को? होठों तक आने आने से पहले ही गले के भीतर फंस कर रह जाना। और फिर अपने कमरे में अपनी इसी खिड़की के पास आकर सब कुछ इसी पर उड़ेल देना।
कैसे समझाए नामित को? जो आया है उसे जाना ही है। चाहे वह तुम्हारे माता-पिता हों, मेरे हों या किसी और के। पर क्यों इतने लोगों के सामने मुझे दोषी ठहरा दिया तुमने? तुम्हारा विश्वास ही नहीं जीत पाई अगर मैं 20 सालों में, तो फिर मेरे तुम्हारी पत्नी होने पर धिक्कार है।
"तुम्हारी वजह से हुआ मेरी मां का एक्सीडेंट आरती| तुमने कभी माना ही नहीं मेरी मां को अपनी माँ, तुम्हे उनसे शिकायत थी ना! लो अब तो हमेशा के लिए दूर हो गई है। अब तुम खुश रहो, राज करो इस घर में, तुम यही तो चाहती थी। मेरी मां तुम्हारी आंखों की किरकिरी थीं हमेशा से ही आरती"। स्तब्ध सी सारे आरोपों को सुनती रही। मां के जाने का दुख क्या कम था। पर उस वक्त जब मां को अंतिम विदा दी जा रही थी नमित के मुंह से अपने लिए यह सुनकर आरती के पैरों तले जमीन खिसक गई।
मां से कह कर गई थी बस स्टैंड पर बैठाकर, "मां आप यहां बैठो बस के आने में अभी टाइम है। मैं जरा सड़क के उस पार से फ्रूट ले आऊँ। डॉक्टर को दिखा कर लौट रही थी वह माँ को, पर उसे पता ही नहीं चला कि मां ने सड़क पार क्यों करनी चाही? इन सारे सवालों से बस वही जूझ रही थी। उसने जैसे ही शोर सुना पीछे पलट कर देखा। तो एक गाड़ी की टक्कर और मां खून से लथपथ सड़क पर। बदहवास हो गई थी आरती, पर फिर भी हिम्मत नहीं हारी उसने| जैसे-तैसे लोगों की मदद से मां को हॉस्पिटल पहुंचाया, नमित को फोन किया, पापा जी को भी पर तब तक माँ की सांसें थम चुकी थीं। जब नमित ने आरोप लगाया "अब तो तुम खुश हो ना?" तो पापा जी ने भी चुप्पी साध ली|
"मैं नहीं हूं कसूरवार, पर मैं कैसे समझाऊं मुझे नहीं पता माँ ने क्यों सड़क पार करनी चाही?"
तभी कमरे की लाइट जली, नमित कुछ ढूंढ रहे थे। यहां वहां, अलमारी के भीतर| फिर दराज को खोला, पर शायद उन्हें मिला नहीं।
आरती ने आगे बढ़कर पूछा- "कुछ चाहिए आपको"?
एक संक्षिप्त सा उत्तर मिला "नहीं"।
बता दीजिए, मैं ढूंढ दूंगी।
हम पर और एहसान करने की जरूरत नहीं, बहुत बड़ा एहसान कर चुकी हो तुम।
उसने फिर भी अपने टूटे मन से दोबारा पूछा बता दीजिए मैं ढूंढ दूंगी।
"मां को ढूंढ रहा हूं अपनी, ढूंढ दो" कहते-कहते नामित की आंखों में सैलाब बस छलकने को ही था।
"मैं कैसे समझाऊं आपको, मुझे नहीं पता माँ ने....।"
"बस करो, इतनी मुश्किल से मां को डॉक्टर के पास जाने को राजी किया था। मेरी ही गलती थी, तुम किसी लायक ही नहीं।"
"ऐसा मत कहिए नामित, मैंने इस घर को अपने 20 साल दिए हैं| मुझे एक पल में पराया मत करिए"।
"कहूंगा हजार बार कहूंगा"।
ऐसी बातें जब भी आरती नमित से बात करने की कोशिश करती अमूमन हो जाती। इनसे दोनों के बीच की खाई जैसे और बढ़ जाती।
पापा जी बड़े भाई साहब के साथ गांव चले गए। नमित ऑफिस से आने के बाद खाना खाकर पार्क चले जाते, फिर सो जाते।
अनीष भी जब से अमेरिका पढ़ने गया था, घर में खालीपन तभी से बसता था। पर उसके जाने के बाद माँ-पापा जी के साथ उसका फिर भी अच्छा वक्त पास हो ही जाता था। कुछ कहा सुनी-कुछ मीठी तकरार, कभी-कभी नाराजगी| यह सब तो आम सी बातें होती हैं परिवार में सदस्यों के बीच| पर कभी उसने किसी के साथ द्वेष भाव नहीं रखा और जब पापा जी के गांव चले जाने के बाद यह टू प्लस वन का घर जो कभी हमेशा ही घिचपिच सा भरा-भरा सा लगता था|" कहती रहती थी कितना फैला देते हो घर को, ऐसा भी कोई करता है क्या"? अब सब कुछ करीने से जंचा रहता है।
नमित का गुस्सा भी तो उनके चेहरे के भाव भी तो ऐसे ही जंचे रहते हैं| कभी माहौल को हल्का करने के लिए कुछ करना भी चाहती तो नमित के बाण और तीक्ष्ण हो जाते। माँ को गए 4 महीने हो गए थे, पर नमित इस अवसाद से जैसे स्वयं को निकालना ही नहीं चाहते थे। ना ही आरती को निकलने देना चाहते थे।
आरती को भीतर ही भीतर हर दिन कुछ तोड़ता जा रहा था।
"दादी के जाने पर आना चाहिए था माँ मुझे, पर क्या करूं? मैं आना चाहता हूं वहां| आप लोगों के पास, मैं यहां कैसे रहूं? मुझे आपके पास आना है, दादू के पास आना है। यह सब कैसे हो गया माँ?" अनीष लगभग हर दिन फोन पर कहता।
"तुम संभालो अपने आप को अनीष" आरती कहती।
इतनी दूर यहां से कैसे संभाल पा रही थी अनीष को और अपने आपको यहाँ। किसी ने सही कहा है, गैरों की बेरुखी तो सह ली जाती है पर अपनों की नहीं, बहुत मुश्किल है। पर फिर भी...."
फिर भी.... अनीष कहता फोन पर "मां मैं आना चाहता हूं"।
"नहीं बेटा, एग्जाम तो हो जाने दो| उसके बाद तो तुम्हें आना ही है।"
"फिर भी, वहां आपको मेरी जरूरत है" अनीष के यह शब्द उफ्फ...."।
आरती फोन रखते ही अपराधबोध के गहरे समुद्र में हिलोरे खाने लगती| नमित की बोलियां भी तो किसी थपेड़ों से कम नहीं होती थीं। या तो बोलते ही नहीं और जब बोलते तो....
अनीष के आने का वक्त करीब था। आरती उसके आने का जरा सा उत्साह दिखाती तो नमित की नजरें जैसे उस पर तीक्ष्ण प्रहार करती थीं। पर वह क्या करती? वह भी तो माँ थी अनीष की, आने वाला था अनीष| शुक्रवार से ही तो आरती ने नमक पारे, मठरियाँ और न जाने कितनी फरमाइशओं को अनीष के बिना कहे ही पूरा करने की तैयारियों में व्यस्त थी। नमित की निगाहें उनसे तो वह मिलना ही नहीं चाहती थी। ऐसा नहीं था नमित खुश नहीं था अनीष के आने से, पर शायद वह आरती जितना उत्साहित दिखना नहीं चाहता था। कभी-कभी हम खुश होते हुए भी ना जाने क्यों दूसरों को दुख पहुचाने या अपराध बोध में धंसा देने के लिए स्वयं खुश नहीं दिखना चाहते। आरती ने किचन से बाहर आकर अखबार पढ़ रहे नमित से कहा- "बाजार से मटर लानी है, अनीष को मटर कचोरी बहुत पसंद है। उसके लिए बनानी है।"
"अनीष को तो अपनी दादी के हाथ का गाजर का हलवा भी बहुत पसंद है। खिला पाओगी?"
आरती ठगी सी रह गई, धीमे स्वर में उसने कहा "जरूर, अगर वह कहेगा तो माँ जैसा तो नहीं बना पाऊंगी पर हां गाजर का हलवा तो जरूर खिलाऊंगी| गाजर भी लेते आइएगा।"
नमित ने एक कड़वी निगाह आरती पर डाली और बाहर निकल गया। रविवार सुबह आरती बेसब्री से अनीष का इंतजार कर रही थी। नमित उसे यह कर घर छोड़ गए, "तुम क्या करोगी जाकर, अनीष ने घर पर ही तो आना है"।
वह बता ही नहीं सकी कि मैं अपने कलेजे के टुकड़े को नजर भरकर सबसे पहले देखना चाहती हूं, उसे अपने गले लगाना चाहती हूं। पर आरती जानती थी कि बहस का आज कोई मतलब ही नहीं था। आज उसका बेटा घर आ रहा था, वह दिल से खुश थी। आरती बेसब्री से इंतजार में बैठी थी। दो घंटे होने को आए नमित को और तभी बैल बजी आरती नें दौड़कर गेट खोला सामने अनीष ओह आरती की आंखो से देखे कोई "कितना दुबला हो गया है रे तू!"
"नहीं माँ जिम जॉइन कर लिया है"।
अनीष के आ जाने के बाद भी नमित की बेरुखी आरती के प्रति बनी हुई थी। अनीष महसूस भी कर रहा था पर आरती से पूछने पर वह मुस्कुरा कर टाल जाती, "आजकल तुम्हारे पापा को ऑफिस में वर्क लोड ज्यादा है।"
अनीष अपने मां-बाप के बीच का खिंचाव महसूस कर रहा था। "मां क्या बात है? ऑफिस का वर्क लोड तो पहले भी पापा पर था, पर वह आपसे इतनी बेरुखी से बात नहीं करते थे।" अनीष आरती की दुखती रग पर हाथ रख बैठा।
"नहीं तो, ऐसा तो कुछ नहीं है बेटा।"
"बताओ ना क्या बात है? अब दादाजी भी हमारे साथ नहीं रहते, पहले तो कहते थे गांव में मन नहीं लगता। पर अब क्या हो गया?"
आरती ने स्वयं को संयमित करते हुए कहा - "दादी जो नहीं है"।
"मां दादी बुजुर्ग थी| हाँ पर वह जिस तरह से गई उसका दुख तो हम सभी को है मां, सिर्फ दादा जी को तो नहीं|"
"उनकी जीवन संगिनी थीं वह अनीष| पापा से भी तो दादी का अटैचमेंट बहुत था।"
"हां, तभी तो...." आरती के सब्र का बांध कुछ दरकने लगा था।
"क्या मां? क्या तभी तो?"
"तभी तो वो मुझे माँ के जाने का कारण मानते हैं। उन्हें लगता है माँ का एक्सीडेंट मेरी वजह से हुआ जबकि.....।
"मां क्या? मैं आप और पापा नहीं जानते कि दादी को लगता था कि उनके अलावा मोलभाव कोई अच्छा कर ही नहीं सकता?"
"ओह!"
तभी पीछे से नामित की आवाज आई "आरती तुम इतना नीचे गिर जाओगी कि अनीष को भी अपनी गलती होते हुए भी बहकाने की कोशिश कर रही हो।"
"ऐसा नहीं है नामित..."|
"हां पापा ऐसा नहीं है, मैं देख रहा हूं आप मम्मा से... क्या इसलिए नाराज हो पापा? दादी के साथ एक मिस हैपनिंग हुई, इसका दोष आप मेरी मम्मी को क्यों दे रहे हो?"
"तो और किसे दूं? यह हर वक्त परेशान रहती थी ना तुम्हारी दादी से| एक दिन साथ ले गई और छोड़ आई हमेशा के लिए।"
"पापा यह आप क्या कह रहे हैं? और मैं जानता हूं आप दादी को लेकर पजेसिव थे। पर मम्मी को लेकर मैं भी इतना ही पजेसिव हूं। सोचिए अगर मैं आपसे कहूं कि आपकी नाराजगी से मम्मी को कुछ हो गया, तो मैं आपको कभी माफ नहीं करूंगा।"
"अनीष" नमित ने लगभग धमकाते हुए कहा।
"क्यों पापा? एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना को आप मम्मी पर मंड रहे हैं? दादी का जाना दुखद है। पर यह भी तो देखिए जो आया है उसे जाना है कभी ना कभी तो| हम जानते हैं इसे स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है। पर स्वीकार तो करना ही होता है ना पापा? मेरी मम्मी को दोष मत दीजिए। मैं भी तो आप लोगों को छोड़कर इतनी दूर पढ़ने चला गया। कल को मेरी मम्मा को कुछ हो जाता है तो क्या मैं आप को दोषी मानकर उम्र भर आप से नाराज रहूंगा? नहीं पापा, मम्मी को उस गलती की सजा मत दीजिए, जो उन्होंने की ही नहीं। गलती किसी की भी नहीं है, वह घटना थी जो हमारे परिवार के साथ घटी|"
"पर वह मेरी माँ थी अनीष"
"और यह मेरी मां हैं पापा"
आरती आज तक अपना ही दुख समझ रही थी। अनीष के मुंह से अपने लिए यह शब्द सुनकर वह आज नमित के भीतर उठती माँ के लिए हूक से भी जुड़ गई थी।
पर आज अपने बेटे के शब्दों को सुनकर नमित के भीतर भी आरती की अंदरूनी कसक कतार बोल गया| "यह माँ और बच्चों का रिश्ता ही ऐसा होता है। पर जीवन में अच्छी और बुरी घटनाओं का दोष किसी पर डालकर हम जीवन नहीं जी सकते।"
"तुम शायद ठीक कहते हो अनीष, मैं कोशिश करुगां तुम्हारी माँ को खुश रखने की" कहते-कहते नमित की आंखें छलक पड़ी, जिन्हे आरती ने अपने आंचल में संभाल लिया।
चेतना शर्मा
मौलिक व स्वरचित
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