चाहत..
ना नाम
ना वजूद
ना रूप
ना रंग
बस है
सिमटी हुई
छुपति हुई
फिर भी,
मस्त
लेहराती हुई
अपने ही भीतर
गुनगुनाती हुई
अपना ही दायरा
मेहकाती हुई...
ना तुम जानो
ना कोई
पर फिर भी
चाहत है
चुप
खुश...
इशारे ढूंढती
तुम्हारे...
हो तुम
खुश
बस यही
खुशी है
उसकी
और क्यों नही हो
चाहत ही तो है
बिन नाम
बिन रंग
बिन वजूद की
चाहत....
---- चारू ऋषि मैहरा
१४/०६/२२----
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Lovely poem Expressed so well
Lovely poem Expressed so well
Beautiful 💕❤️
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