देश में आतंक फैलाने के लिए आतंकवादी उच्च तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस क्रम में अब जैव आतंकवाद की अवधारणा भी सामने आ रही है। आधुनिक काल में जैव आतंकवाद को ऐसी क्रूर गतिविधि के रूप में व्याख्यायित किया जाता है जिसके अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विषाणुओं, जीवाणुओं तथा विषैले तत्वों को मानव द्वारा ही प्राकृतिक अथवा परिवर्धित रूप में विकसित कर अपने लक्ष्य संधान हेतु किसी राष्ट्र के विरूद्ध निर्दोष जन, पशुओं अथवा पौधों को को गम्भीर हानि पहुंचाने हेतु योजनाबद्ध रूप से मध्यस्थ साधन के रूप में दुरूपयोगित किया जाता है। दूसरे रूप में जैव आतंकवाद उन संबंधों को बताता है जिसमें अनियमित रूप से जैविक मध्यस्थों के रूप में घातक जीवाणुओं, विषाणुओं अथवा रसायनों के दुरुपयोग के द्वारा किसी राष्ट्र की सरकार या जनता को राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु धमकाया जाता है। प्रायः मनुष्य, जंतु एवं पादप समूह इसके लक्ष्य बनते हैं। वर्तमान समय में आत्मघाती जैव आतंकवाद की समस्या भी सामने आ रही है जिसमें आतंकवादी स्वयं को घातक रोगकारी संक्रमण से संक्रमित करने के पश्चात सामान्यजन के मध्य जा कर उन्हें भी संक्रमित कर देता है एवं अंततः स्वयं भी मर कर पूरे क्षेत्र को विनाशक रोग से भर देता है।
जैवकीय युद्ध के प्रयास के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में मेसोपोटामिया के अस्सूर साम्राज्य के लोगों ने शत्रुओं के पानी पीने के कुओं में एक विषाक्त कवक डाल दिया था जिससे शत्रुओं की मृत्यु हो जाये। इसी प्रकार ईसा पूर्व 184वीं सदी में विख्यात सेनापति हान्निबल नें मृदा पात्रें में सर्प विष भरवा कर प्राचीन ग्रीक नगर पर्ग्मान में उपस्थित जलपोतों में विष को फिंकवा दिया था।
यूरोपीय मध्यवर्ती इतिहास में मंगोलों तथा तुर्की साम्राज्यों द्वारा संक्रमित पशु शरीरों को शत्रु राज्य के जल स्रोतों में डलवा कर संक्रमित करने के कई आख्यान मिलते हैं। प्लेग के महामारी के रूप में बहुचर्चित "श्याम मृत्यु" (Black Death) के फैलने का प्रमुख कारण मंगोलों तथा तुर्की सैनिकों द्वारा रोग पीडि़त मृत पशु शरीरों को समीपवर्ती नगरों में फेंका जाना बताया जाता है।
जैवकीय युद्ध का एक ज्ञात पिछला उदहारण रूसी सैनिकों द्वारा ईसवी 1710 में स्वीडिश नगर की दीवारों प्लेग संक्रमित मृत पशु शरीरों के फेंके जाने के आख्यान द्वारा जाना जाता है।
जैवकीय हथियारों का विकसित रूप में प्रयोग जर्मन सैनिकों द्वारा प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में एंथ्रेक्स तथा ग्लैंडर्स के जीवाणुओं द्वारा किया गया था। इस प्रकार के जैवकीय हथियारों के प्रयोग पर जेनेवा संधि द्वारा ईसवी 1925 में रोक लगा दी गयी थी जिसके प्रतिबंध क्षेत्र का विस्तार सन् 1972 में जैवकीय तथा विषाक्त शस्त्र सम्मलेन के माध्यम से किया गया।
जापान-चीन युद्ध (1937-1945) तथा द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) में शाही जापानी फौज की विशिष्ट शोध इकाई (इकाई संख्या 731) नें चीनी नागरिकों तथा सैनिकों पर जैवकीय हथियारों के प्रयोग किये जो बहुत प्रभावशाली नहीं सिद्ध हो पाए परन्तु नवीन अनुमानों के अनुसार लगभग 5,80,000 सामान्य नागरिक, प्लेग संक्रमित खाद्य पदार्थों के जाने- बूझे प्रयोग के द्वारा प्लेग तथा हैजा से पीडि़त हुए थे।
नाजी जर्मनों के जैवकीय हथियारों के संभावित खतरे का प्रत्युत्तर देने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका, संयुक्त ब्रिटेन तथा कनाडा नें सन् 1941 में जैवकीय हथियार विकास करने के संयुक्त कार्यक्रम पर एक साथ कार्य किया तथा एंथ्रेक्स, ब्रुसेलोसिस तथा बोटुलिनस के विषैले जैव हथियार तैयार किये परन्तु बाद में यह संभावित भय की एक अतिरंजित प्रतिक्रिया ही सिद्ध हुई।
सन् 2001 के सितम्बर तथा अक्टूबर महीने में संयुक्त राज्य अमेरिका में एंथ्रेक्स के आक्रमण के कई मामले सामने आये थे जिसमें आतंकवादियों नें बहुतेरे एंथ्रेक्स संक्रमित पत्र संचार माध्यमों तथा अमेरिकी कांग्रेस के कार्यालयों में भेजे जिसके कारण पाँच व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी।
उल्लेखनीय है कि कीटाणुओं, विषाणुओं अथवा फफूंद जैसे संक्रमणकारी तत्वों जिन्हें जैविक हथियार कहा जाता है, का युद्ध में नरसंहार के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। गौरतलब है कि जैव आतंकवाद के जरिए अकसर बैक्टीरिया और कई नई तकनीक के जरिए हमला किया जाता है जो हथियारों से और भी ज्यादा खतरनाक होता है। जैव आतंकवाद के वाहक के रूप में 190 प्रकार के बैक्टीरिया, वायरस, फंगस पर्यावरण में मौजूद हैं। एन्थ्रेक्स, प्लेग, बोटड्ढूलिज्म, सारमोलेला, टूलेरीमिया, ग्लैन्डर, एन्थ्रेक्स जैसे खतरनाक जीव इसमें शामिल हैं। कई वाहक पाउडर के रूप में होते हैं। इन्हें आसानी से पानी या हवा में छोड़ा जा सकता है या किसी के भोजन में मिलाया जा सकता है। ये 24 घंटे के अंदर प्राणी और अन्य जीवों की जान ले सकते हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि जैव आतंकवाद की रोकथाम की क्षमता केवल पशु चिकित्सकों में ही है। विश्व स्तर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कमीशन फॉर जुनोसिस की स्थापना की है। इसके तहत जुनोसिस डिजीज कंट्रोल बोर्ड एवं कंट्रोल ऑफ वेक्टर बॉर्न डिजीज सेंटर कार्यरत हैं। भारत में इसे लेकर गंभीरता काफी कम है, जबकि आए दिन यहां आतंकवादी हमले होते रहते हैं। जुनोसिस से जुड़ी बीमारियों में 70 प्रतिशत से अधिक बीमारियाँ वन्यजीवों से पालतू पशुओं में स्थानांतरित हो जाती हैं, इसके बाद यह मानव में फैलती हैं। इंटरनेशनल वेटनरी स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आईवीएसए) एवं वाइल्ड लाइफ कंजरवेशन एंड एग्रो रूरल कंजरवेशन (डब्ल्यूएआरडी) ने वन विभाग महाराष्ट्र एनिमल एंड फिशरी यूनिवर्सिटी, नागपुर के पाँच नेशनल पार्क और पाँच टाइगर रिजर्व सेंटर को ध्यान में रखते हुए जल्द ही वाइल्ड लाइफ रिसर्च सेंटर और फॉरेनसिक रिसर्च सेंटर खोलने का प्रस्ताव दिया परन्तु उस पर अभी कार्य किया जाना बाकी है।
जैविक आपदा प्रबंधन से संबंधित राष्ट्रीय दिशा-निर्देश जारी किये जाने की जरूरत है। आतंकवादियों द्वारा जैविक हथियार इस्तेमाल कर सकने की आशंका के प्रति सतर्क रहने की आवश्यकता है। जैविक आपदाओं से निपटने के लिए केन्द्र और राज्यों के बीच उचित सहयोग होना चाहिए, लेकिन अगर इसका प्रभावी ढंग से सामना करना है तो जिलों तथा स्थानीय निकायों के बीच समन्वय और भी आवश्यक है। इन खतरों से बचाव हेतु प्रबंधन रणनीतियों के संबंध में एक स्पष्ट, प्रभावी और पूर्वाभ्यास वाले प्रोटोकॉल बनाए जाने चाहिए।
प्रोटोकॉल और रणनीतियाँ बनाते वक्त केवल परिचालन वातावरण और संचालन की प्रकृति ही नहीं बल्कि इसके साथ ही एएफएमएस की क्षमताओं का भी ध्यान रखना चाहिए।
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