मानसिक स्वास्थ्य, जीवन की गुणवत्ता का मुख्य निर्धारक होने के साथ सामाजिक स्थिरता का भी आधार होता है। जिस समाज में मानसिक रोगियों की संख्या अधिक होती है वहाँ की व्यवस्था व विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः मनोविज्ञान में असामान्य और अनुचित व्यवहारों को मनोविकार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो किसी व्यक्ति द्वारा अनुभव की जाने वाली ऐसी बीमारी जो उसकी भावनाओं, विचारों और व्यवहार को इस तरह प्रभावित करती है कि वो उसकी मान्यताओं तथा व्यक्तित्व से मेल न खाए और उस व्यक्ति तथा उसके परिवार की जिंदगी पर नकारात्मक असर डाले, तो वह मनोरोग कहलाती है।
ज्यादातर लोग मनोरोग को हिंसा, उत्तेजना और असहज यौनवृत्ति जैसे गंभीर व्यवहार संबंधी विचलनों से जुड़ी बीमारी मानते हैं। ऐसे विचलन अकसर गंभीर मानसिक अवस्थाओं का परिणाम होते हैं। लेकिन, मनोरोग से पीडि़त ज्यादातर लोग दूसरे सामान्य लोगों जैसा ही व्यवहार करते हैं और वैसे ही दिखते हैं।
वैश्विक स्तर पर देखें तो मानसिक और मनोसामाजिक रूप से विकलांग व्यक्ति विश्व की जनसंख्या के एक बड़े अनुपात को दर्शाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, वैश्विक स्तर पर करीब 45 करोड़ लोग मानसिक रोग से पीडि़त हैं। दुनियाभर में चार लोगों में से एक व्यक्ति अपने जीवन के किसी पड़ाव पर मानसिक रोगों से प्रभावित होता है। वहीं विश्व के 40 प्रतिशत से ज्यादा देशों में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित नीति नहीं है और 30 प्रतिशत से अधिक देशों में इससे संबंधित कोई कार्यक्रम तक नहीं है। जबकि करीब 25 प्रतिशत देशों में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित कोई कानून नहीं बना है। इसके अतिरिक्त विश्व के करीब 33 प्रतिशत देश अपने स्वास्थ्य व्यय का एक प्रतिशत से भी कम मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है तो राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, भारत की 18 वर्ष से अधिक 10.6 प्रतिशत आबादी यानी करीब 15 करोड़ लोग किसी न किसी मानसिक रोग से पीडि़त हैं। हर छठे भारतीय को मानसिक स्वास्थ्य के लिए मदद की दरकार है जनगणना 2011 के अनुसार, भारत में लगभग 22 लाख 28 हजार मनोरोगी हैं जबकि लांसेट की रिपोर्ट कहती है कि भारत में मनोरोगियों की संख्या 16 करोड़ 92 लाख है।
वहीं डब्ल्यूएचओ के अनुसार, भारत की 135 करोड़ की आबादी में 7.5 प्रतिशत (10 करोड़ से अधिक) मानसिक रोगों से प्रभावित हैं। अध्ययन बताते हैं कि 2020 तक भारत की 20 प्रतिशत आबादी किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त होगी। 15.29 आयु वर्ग में आत्माहत्या की दर भी सर्वाधिक होगी। स्मरणीय हो कि लगभग एक मिलियन लोग हर साल आत्माहत्या करते हैं। इस तरह की बीमारियों की बढ़ती संख्या में अवसाद को तीसरा स्थान दिया गया है जिसके 2030 तक पहले स्थान पर पहुँचने की उम्मीद है।
जहाँ तक मनोचिकित्सकों का सवाल है तो भारत में एक लाख की आबादी पर 0.3 मनोचिकित्सक, 0.07 मनोवैज्ञानिक और 0.07 सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वहीं विकसित देशों में एक लाख की आबादी पर 6.6 मनोचिकित्सक हैं। मेंटल हॉस्पिटल की बात करें तो विकसित देशों में एक लाख की आबादी में औसतन 0.04 हॉस्पिटल हैं जबकि भारत में यह 0.004 ही हैं।
किसी व्यक्ति के मनोरोगी होने के पीछे कई कारक जिम्मेदार होते हैं। मनोरोग का एक महत्वपूर्ण कारक आनुवंशिक होता है। मनोविक्षिप्त या साइकोसिस, स्कीजोफ्रीनिया इत्यादि रोग उन लोगों में अधिक पाये जाते हैं, जिनके परिवार का कोई सदस्य इनसे पीडि़त होता है। ऐसे व्यक्ति के संतान में यह खतरा लगभग दोगुना हो जाता है।
कई बार कमजोर व्यक्तित्व भी व्यक्ति को मनोरोगी बना देता है, ऐसे व्यक्ति अकसर अपने आप में खोये हुए तथा चुपचाप रहना पसंद करते हैं। इस तरह के व्यक्ति में स्कीजोफ्रीनिया की अधिक सम्भावना होती है, जबकि अनुशासित तथा साफ सफाई पसंद, समयनिष्ठ जैसे गुणों वाले व्यक्तित्व के लोगों में विक्षिप्त मनोरोगी (Compulsive dementia) की अधिक सम्भावना होती है।
मनोरोग की एक वजह शारीरिक परिवर्तन भी माना जाता है। दरअसल किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, गर्भ-धारण जैसे शारीरिक परिवर्तन के कारण मनोरोगों की संभावना बढ़ जाती है।
वातावरणजनित परिस्थितियाँ आज के समय में ऐसे रोगों को उत्पन्न करने की एक अन्य वजह बन रही हैं।
इसके अतिरिक्त कुछ दवाएँ, रासायनिक तत्वों, मदिरा तथा अन्य मादक पदार्थों इत्यादि का सेवन भी मनोरोगों की उत्पत्ति का कारण रहे हैं।
मनोवैज्ञानिक कारण तो आज के समय में इसकी मुख्य वजह मानी जा रही है। उदाहरण के लिए आपसी संबंधों में टकराहट, किसी निकटतम व्यक्ति की मृत्यु, सम्मान को ठेस, आर्थिक हानि, तलाक, परीक्षा या प्रेम में असफलता इत्यादि।
सामाजिक-सांस्कृतिक हालात भी ऐसे रोगों से व्यक्ति को प्रभावित कर रहे हैं जिसके मूल में व्यक्ति का सामाजिक एवं मनोरंजक गतिविधियों से दूर होना, अकेलापन, राजनीतिक, प्राकृतिक या सामाजिक दुर्घटनाएँ (जैसे कि लूटमार, आतंक, भूकंप, अकाल, बाढ़, सामाजिक बोध एवं अवरोध, महँगाई, बेरोजगारी) इत्यादि की बढ़ती प्रवृत्ति है।
अन्य कारणों में सहनशीलता का अभाव, बाल्यावस्था के अनुभव, खतरनाक किस्म के विडियोगेम, तनावपूर्ण परिस्थितियाँ और इनका सामना करने की असमर्थता मनोरोग के लिए जिम्मेदार मानी जा रही हैं। स्मरणीय हो कि वे स्थितियाँ, जिन्हें हल कर पाना एवं उनका सामना करना किसी व्यक्ति को मुश्किल लगता है, उन्हें तनाव का कारक माना जाता है। तनाव किसी व्यक्ति पर ऐसी आवश्यकताओं व मांगों को थोप देता है जिसे पूरा करना व्यक्ति के लिए मुश्किल हो जाता है। नतीजतन इन मांगों को पूरा करने में लगातार असफलता मिलने पर व्यक्ति में मानसिक तनाव पैदा हो जाता है और वह मनोरोग का शिकार हो जाता है।
खराब मानसिक स्वास्थ्य का सामाजिक और आर्थिक स्तर पर व्यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ता है जो कि गरीबी, बेरोजगारी की उच्च दर, खराब शैक्षिक और स्वास्थ्य परिणाम की वजह बनता है।
मानसिक और मनोसामाजिक रूप से विकलांग व्यक्तियों को अकसर गलत धारणाओं की वजह से भेदभाव का सामना करता पड़ता है जिसके चलते मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित समस्या से पीडि़त ज्यादातर लोग मानने को तैयार ही नहीं होते कि उन्हें कोई रोग है। मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, मानसिक विकारों से प्रभावित 99 प्रतिशत भारतीय देखभाल और उपचार को जरूरी नहीं मानते। नतीजतन मानसिक रोगियों की स्थिति और बदतर व दुखदायी हो जाती है।
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