भारत की राष्ट्रभाषा
भारत में अधिकतर लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में ही जानते हैं, भारत में सबसे अधिक हिंदी भाषा का प्रयोग किया जाता है, परन्तु यह एक सत्य है, कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 343 के अंतर्गत हिंदी भाषा को भारत की ‘राजभाषा’ के रूप में मान्यता दी गयी है। इसका अर्थ है कि हिंदी का प्रयोग केवल राजकीय कार्य में किया जा सकता है। भारतीय संविधान में राष्ट्रभाषा का कोई उल्लेख नहीं किया गया है।
जब भारतीय संविधान का निर्माण हो रहा था तब उस समय राष्ट्रभाषा का प्रश्न उठा था। तब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने का सुझाव दिया गया था, परन्तु इसका विरोध होने लगा, जिस कारण संस्कृत को राष्ट्रभाषा नहीं माना गया। संविधान सभा में कई लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में
कम ही लोगों को पता होगा कि राष्ट्रभाषा और राजभाषा में अंतर होता है
राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है- समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात् आमजन की भाषा (जनभाषा जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन-जन के विचार- विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। गौरतलब है कि जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
राजभाषा, किसी राज्य या देश की घोषित भाषा होती है जो कि सभी राजकीय प्रायोजनों में प्रयोग होती है।
भारत मे राष्ट्रभाषा
संविधान में भारत की केवल दो ऑफिशियल भाषाओं का जिक्र था। इसमें किसी ‘राष्ट्रीय भाषा’ का जिक्र भी नहीं था। इनमें से ऑफिशियल भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग अगले पंद्रह सालों तक उपयोग करने का लक्ष्य था। ये पंद्रह साल संविधान लागू होने की तारीख (26 जनवरी, 1950) से अगले 15 साल यानी 26 जनवरी, 1965 को खत्म होने वाले थे।
हिंदी समर्थक राजनेता जिसमें बालकृष्ण शर्मा और पुरुषोत्तम दास टंडन शामिल थे। उन्होंने अंग्रेजी को अपनाए जाने का विरोध किया। इस कदम को साम्राज्यवाद का अवशेष बताया और साथ ही केवल हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाए जाने के लिए विरोध प्रदर्शन किए। उन्होंने इसके लिए कई प्रस्ताव रखे लेकिन कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सका क्योंकि हिंदी अभी भी दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों के लिए अनजान भाषा ही थी। 1965 में जब हिंदी को सभी जगहों पर आवश्यक बना दिया गया तो तमिलनाडु में हिंसक आंदोलन हुए, जिसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने तय किया कि संविधान के लागू हो जाने के 15 साल बाद भी हिंदी को हर जगह लागू किए जाने पर अगर भारत के सारे राज्य राजी नहीं हैं तो हिंदी को भारत की एकमात्र ऑफिशियल भाषा नहीं बनाया जा सकता है।
इसके बाद सरकार ने राजभाषा अधिनियम, 1963 लागू किया। इसे 1967 में संशोधित किया गया जिसके जरिए भारत ने एक द्विभाषीय पद्धति को अपना लिया। ये दोनों भाषाएं अंग्रेजी और हिंदी थीं।
1971 के बाद, भारत की भाषाई पॉलिसी का सारा ध्यान क्षेत्रीय भाषाओं को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ने पर रहा जिसका मतलब था कि ये भाषाएं भी ऑफिशियल लैंग्वेज कमीशन में जगह पाएंगी और उस राज्य की भाषा के तौर पर इस्तेमाल की जाएंगी। यह कदम बहुभाषाई जनता का भाषा को लेकर गुस्सा कम करने के लिए उठाया गया था।
25 जनवरी, 2010 को दिए एक फैसले में गुजरात उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा था कि भारत की बड़ी जनसंख्या हिंदी को राष्ट्रीय भाषा मानती है। ऐसा कोई भी नियम रिकॉर्ड में नहीं है न ही कोई ऐसा आदेश पारित किया गया है जो हिंदी को देश की राष्ट्रीय भाषा होने की घोषणा करता हो।
अकसर कहा जाता है कि करीब 130 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत में 50 फीसदी से ज्यादा लोग हिंदी बोलते हैं। साथ ही गैर हिंदी भाषी जनसंख्या में भी करीब 20 फीसदी लोग हिंदी समझते हैं। इसलिए हिंदी भारत की आम भाषा है। लेकिन कई भाषाविदों का कहना है कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ के लोगों को हिंदी भाषियों में गिन लिया जाता है, जबकि वे लोग हिंदी भाषी नहीं हैं और उनमें से बहुत से लोगों की भाषा जनजातीय या क्षेत्रीय है। ऐसे में इन्हें हिंदी भाषी के तौर पर गिन लेना सही नहीं है।
इसके अलावा भारत के दक्षिण में केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक, पश्चिम में गोवा, महाराष्ट्र और गुजरात, भारत के उत्तर-पश्चिम में पंजाब और जम्मू-कश्मीर, पूर्व में ओडिशा और पश्चिम बंगाल उत्तर-पूर्व में सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, त्रिपुरा, नगालैंड, मणिपुर, मेघालय और असम, ये इस देश के 29 में से 20 राज्य हैं जिनमें हिंदीभाषी बहुत कम हैं। ऐसे में हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। इसके अलावा भारत में ही हिंदी से कहीं पुरानी भाषाएं तमिल, कन्नड़, तेलुगू, मलयालम, मराठी, गुजराती, सिंधी, कश्मीरी, उडि़या, बांग्ला, नेपाली और असमिया हैं। ऐसे में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे देना टेढ़ी खीर होगी। यही कारण है कि हिन्दी को अभी तक राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है।
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