हमारे भाई

A small piece of poetry for our migrant workers and daily wagers who has been facing brunt of this pandemic..

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Avinash joshi
Avinash joshi 30 May, 2020 | 1 min read

जब समय बड़ा है विपदा का और चारो तरफ महामारी है,

आगे बढ़कर हाथ बटाना अपनी नैतिक जिम्मेदारी है,

कुछ लोग हमारे तरस रहे है अपने घरों तक जाने को,

कुछ लोग हमारे तरस रहे है एक वक़्त की रोटी खाने को,

एक वर्ग हमारा ऐसा भी ज़िंदा है रोज़ की कमाई से,

कल काम मिला तो जलेगा चूल्हा वरना सिर्फ़ आस भलाई से,

हम सब तो ख़ुदग़र्ज़ बहुत है बैठे है घर की छतरी में,

क्या दिखीं नहीं हमको वो रोटी जो पड़ी रही थी पटरी में,

क्या बोझ नहीं है अपने भीतर उन सारी भूखी आंखो का,

जो मीलों पैदल चलकर जाते क्या मोल नहीं सब जानों का?

सबसे ज्यादा ये वर्ग हमारा आहत है इस महामारी में,

खुद हमसे ज्यादा चूक हुई है ये ज़िम्मेदारी निभाने में,

सब काम नहीं सरकारों का कुछ दायित्व हमारे है,

ये गेर नहीं किसी ओर मुल्क के ये सब भाई हमारे है।

                    अविनाश जोशी



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