कविता: ध्वनियां
शब्दों का कोलाहल
पसरा चहुं ओर
क्या उन अल्फाजों का
है कोई मोल
बिना अर्थ के बिखरे पड़े हैं
युं मनकों की टूटी माला
जिसने चाहा लुढ़का दिया
जैसे कोई बेबस प्याला
कभी सुना था ध्वनियों की भी
अपनी तासीर होती है
मधुर ,कर्कश ,राग द्वेष सब
भावनाएं व्यक्त होती हैं
शब्दों के ध्वनित होने से
मर्म समझ आते हैं
ध्वनियों के मध्यम पंचम से
अर्थ बदल जाते हैं
विज्ञान कहे ध्वनियां
अजर अमर होती हैं
एक बार जो निकल पड़े
तो ब्रह्मांड में विचरण करती हैं
मूक बधिरों में भी तो
शब्दों का भंडार होता है
उनकी आंखों में
भावनाओं का दर्पण होता है
उनका अटल मौन मगर
अविरल कहता सुनता है
फिर सारी ध्वनियां, सारे शब्द
बेहद बौने हो जाते हैं।
मौलिक व स्वरचित
अवंती श्रीवास्तव
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
उत्कृष्ट रचना
Thanks kumar Sandeep
बहुत बढिया..! ध्वनियां लौट लौट कर कानो से टकराती हैं..! इको मन को बार बार तडपाती हैं..!!
Wah aap ne bhi bahut accha likha
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