लेखकों की "मन की बात" सुनिए सरकार

लेखकों की समस्याओ से रूबरू कराता मन की बात।

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Ashutosh kumar  Jha
Ashutosh kumar Jha 03 Jul, 2020 | 1 min read

लेखकों की "मन की बात" सुनिए सरकार

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जबसे सोशल मीडिया का चलन बढ़ा है।हिन्दी लेखकों की बाढ़ सी आ गयी है ।यह एक अच्छी और सकारात्मक क्रेज के तौर पर उभर रहा है, जिसमें कई अच्छे लेखक उभरे हैं।आज हर कोई सोशल साइट पर लिखने की कोशिश करता रहता है।अखवारों ने अलग से पेज डाला है । कई रचनाकारों ने अपने जौहर दिखाकर पेज पर स्थान पाते रहे हैं।जिस तरह साहित्यकार का उदय हुआ है। उसी तरह अनेक मंचो ने पांव फैलाये हैं, और साहित्यकार से ज्यादा साहित्य मंच ही दिखते हैं ।ऐसे में शुद्धता की खीचड़ी तो बननी ही थी साथ ही साहित्य चोर ने भी पाँव फैलाए हैं । इतने सारे मंच और नित नये रचनाकार की समीक्षा भला कैसे हो यह एक विषय है जिसे लेकर विभिन्न अकादमियों को कार्य करने होंगे साथ ही साहित्य की चोरी न हो सके इस पर भी सख्त प्रावधान की आवश्यकता है।


खिचड़ी से मेरा तात्पर्य है कि लिखते तो सभी है लेकिन अशुद्धियों पर ध्यान नही दे पाते जिससे अनुस्वार, विषय, कोमा, रेफ, संयुक्ताक्षर आदि गलतियो का ख्याल नही रख पाते हैं।मैं ऐसे नवांकुर साहित्यकारों से कहना चाहूँगा कि वे दो लाइन ही लिखे लेकिन दस बार पढ़े ताकि वह शुद्ध रहे ।बड़े साहित्यकार को पढ़े उनकी शाब्दिक अर्थ और लिखने की शुद्धता पर गौर करे तो ऐसे कई रचनाकार हैं जो आगे चलकर साहित्य को बहुत कुछ दे सकते है।


सोशल साइट पर साहित्यकार के एक्टिव होने से देश के भावो और मूड का पता करना आसान हो गया है।सरकारें और राजनीतिक जगत भी सोशल साईट को देखकर देश का मूड भाँप जाती है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण रामायण और महाभारत जैसे सीरियल का पुनः प्रसारण होना है।अनेक उदाहरण हैं

जो किसी न किसी रूप से सरकारों को सीधे साहित्य से जोड़ती है।ऐसे में सरकारों का भी दायित्व बन जाता है की देश सेवा, समाज सेवा और साहित्य सेवा के इन कर्मठ साहित्यकार के हुनर को बढ़ावा दे और प्रोत्साहित करे।


लेखक समाज का आईना हैं हम चाहे कितने भी आधुनिक क्यों न हो जाएँ लौटकर तो समाज में ही आते हैं।और लेखक हमेशा सामाजिक मसलों का अध्ययनोपरान्त निचोड़ स्वरूप चंद शब्द समाज को परोसते रहे हैं। जिन्हें हम अखबारो, पत्रिकाओं, लेखों, प्रलेखों और विभिन्न मंचों पर सुनते और पढ़ते रहे हैं जबकि उनके इस कार्य का कोई परिश्रमिक नहीं मिलता। आखिर ऐसी व्यवस्था किसलिए ? जबकि,सरकार का प्रमुख एजेंडा है। "सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास" तो फिर इस सामाजिक स्तम्भ के साथ उचित मापदंड क्यों नहीं? यह सरकार के लिए चिन्तन और मनन करने वाला मसला है।जिन्हें रोज पढ़ा जाय और सराहा जाय वे पारिश्रमिक से दूर रहे तो उनके मनोबल बनने से पहले टूटना लाजिमी है और समाज का यह वर्ग जो सामाजिक दर्पण है आर्थिक अभाव में न जाने कब कहाँ गुम हो जाय पता नही चलता ? 


अतः साहित्य समृद्धि, सांस्कृतिक समृद्धि और सामाजिक समृद्धि की समरसता बनाये रखने के लिए लेखकों को उचित सुविधा और प्रोत्साहन दिया जाय ताकि वे भी इस विकास रूपी गंगा में हाथ धोते रहे और नई जोश के साथ लिखते रहे ।


                  आशुतोष 

                 पटना बिहार

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Ashutosh kumar Jha

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  • Ashutosh kumar Jha · 5 years ago last edited 5 years ago

    लेखकों की बात सरकार तक पहुँचे और सभी कलमवीर की समस्याआएं दूर हो।

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