ग़ज़ल
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अक्सर यही प्यार का सिलसिला है।
ज़हां ज़ो न चाहा वहीं सब मिला है।
न ज़ाना न समझा न सोचा कभी था,
मोहब्ब़त का ए गुल वहीं तो खिला है।
ये रिश्ते ये नाते करम से है बनते,
मग़र ब़ेवज़ह उनको हम से गिला है।
मुझे तुम अकेला कभी ना समझना,
मेरे साथ तो दर्द का काफ़िला है।
इश्क़ होता मुकम्मल है रब़ की दुआ से
नहीं इसमें 'अर्जुन' का कुछ भी सिला है।
अरुण शुक्ल अर्जुन
रत्यौरा करपिया कोराँव प्रयागराज
(पूर्णत: मौलिक स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित)
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