सूनी राहें
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उन सूनी राहों पर चलकर याद किसी की आती है।
अक़सर ख़्वाबों में आकर जो ख़ामख़्वाह तड़पाती है।
वीरान पड़ी हैं आज़ कभी गुलज़ार हुई वो राहें थीं।
उन दोनों के दिल की सरहद इक दूज़े की बाहें थीं।
झूम रही थी अगल-बगल कलियां ग़ुलाब गुलमोहर की।
उन गहन घनों में आभाषित छवि मुरली और मनोहर की।
पर आज़ उन्ही गलियों कूंचों में दिखता है इक सूनापन।
बिता दिया था उन दोनों ने ज़हां खेलकर निज ब़चपन।
हुई अचानक ब़ारिश में जब बिजली घोर चमकती थी।
भय से होकर मुक्त हमेशा पिय - बाहों में छिपती थी।
शुरुआती रिमझिम फ़ुहार में भीगे ब़दन हमारे थे।
लुका छिपी में ज़हां ज़ानकर इक दूज़े से हारे थे।
चहल - पहल हो चाहे जितना राहें सूनी लगती हैं।
अब तो प्रिय के इंतज़ार में घड़ियां दुगुनी लगती हैं।
ख़ुद को तो तुम किए समर्पित मातृभूमि की बाहों में।
पर मुझे अकेला छोड़ दिए क्यों प्रियतम सूनी राहों में ?
आहट पाकर प्रमुदित मन से झुक जाती थी तरु शाखें।
उन्हीं पथों को आज़ निरख अब भीग रही हैं बस आंखें।
कवि अरुण शुक्ल 'अर्जुन'
रत्यौरा करपिया कोरांव प्रयागराज
पूर्णत: मौलिक सुरक्षित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित
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