जनवरी की अलसाई सी दोपहर में आंगन की गुनगुनी धूप सेंकता शेखर अधलेटा सा बैठा था।तभी दरवाजे की घंटी बजी और शेखर ने इधर-उधर देखा।घर पर कोई न देख अनमने से दरवाजा खोला।
सामने पांवों में महावर लगाए,पायल-बिछुए पहने, कंगन खनकाती विभु खड़ी थी।पलभर को शेखर ठिठक सा गया।विभु यानि विभावरी शुक्ला, शेखर की बचपन की सहचरी।शेखर उसे विभु ही बुलाया करता।कब से उसे देखता आया था उस आंगन से इस आंगन साधिकार मंडराते।कितनी बार तो बचपन में उसकी चुटिया पकड़कर खींची थी, कितनी बार उसकी पीठ पर धौल जमाया था और कितनी ही बार उसका टिफ़िन छीनकर खा गया था।
कोई २३ एक की विभु दो महीने पहले ही ब्याही गई थी।शेखर भी आमंत्रित था।वैसे भी पड़ोसनों के विवाह में लड़कों का नाता दोने-पत्तलें परोसने भर का ही होता है,चाहे वो खुद को कितने ही तुर्रम खां समझते रहे हों।शेखर ने भी अपने हिस्से की ये ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई थी।अपनी विदाई पर विभु कितना रोई थी।पहली बार शेखर को लगा था मानो उसके कलेजे के एक हिस्से को किसी ने अलग कर दिया हो।रोया तो शेखर भी था अपने कमरे में छुपकर, तकिए में मुंह छुपाकर, डरता था कि कहीं कोई रोता न देख ले।
अब वही विभु शादीशुदा महिला के रूप में सामने खड़ी थी।पहले जितनी ही सुंदर या शायद पहले से थोड़ी ज़्यादा सुंदर और थोड़ी बड़ी-बड़ी सी।'ये लड़कियां भी कितनी जल्दी बड़ी हो जाती हैं ना,शेखर ने सोचा था।कोई २४-२५ का शेखर अभी बेरोजगार था।ऐसे असमंजस में शेखर को खड़ा देख कर विभु ने पूछा था 'अरे भई, अंदर आने को नहीं कहोगे?'
जवाब में शेखर ने दरवाजा छोड़ रास्ता दे दिया था।आंंखों से पूरे घर का मुआयना करती विभु अंंदर आ गई थी।
'चाचीजी कहीं दिखाई नहीं दे रही हैं?'
'मां उर्मिला चाची के घर सत्संग में गई हैं।'शेखर वहां से खिसकने की युक्ति सोचता हुआ बोला।
'और आप जनाब इतवार की धूप सेंक रहे हैं?'शेखर की दुविधा को भांपती विभु ने कहा।
'बैठो ना'शेखर ने कुछ उपाय न देख कहा।
अपने साथ लाए डब्बे को शेखर को सौंपती विभु बोली,'गाजर का हलवा है,तुम्हारे लिए बनाया है, खाकर देखो कैसा है?'
फ़िर आंगन में लगी कुर्सी पर बैठ गई।खिलंदड़ी सी विभु शुरू हो गई, अनेकानेक बातें हमेशा की तरह।अपने ससुराल की,ससुराल वालों की और पति की।
''जानते हो शेखर, सिर्फ दो महीनों में ऐसा लगता है जैसे कई साल बीत गए हों।मां कहती है, ससुराल ही लड़की का असली घर होता है।पर सच कहूं तो मुझे सबकी, मां-पापा की, भैया भाभी की और तुम सब की बहुत याद आती है।मन आज भी मायके में भटकता है।"शेखर ने देखा था, विभु की आंंखों में नमी तैर आई थी।उसने खुद भी तो गले में नमक की एक डली सी महसूस की थी।'अरे हलवा खाकर देखो ना, कैसा बना है, बात बदलते हुए विभु ने कहा।गाजर का हलवा हमेशा से शेखर का फ़ेवरेट था।
'तुम्हें याद था?'उसने बेसाख़्ता पूछ लिया।
'अरे भूले ही कब थे?'हंसती हुई विभु बोली।
'जानते हो शेखर, जरूर पिछले जन्म में ज़रूर तुम्हारा उधार खाया होगा, तुम्हें भूल ही नहीं पाती।अच्छा चलती हूं, मां इंतजार करती होगी।' और हलवे का एक निवाला उसके मुंह में डाल विभु चल दी थी।
हलवे का मीठा स्वाद शेखर के मुंह में घुल गया था और जाती हुई विभु एक भीनी सी खुशबू भी छोड़ गई थी,स्नेह की ऊष्मा से सराबोर एक अनकहे रिश्ते की जो अपरिभाषित था, हां अपरिभाषित!
मौलिक एवं अप्रकाशित
अर्चना आनंद भारती
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