आज क़रीब सालभर बाद लौट रहा था मैं अपने शहर...शिक्षा और नौकरी की जद्दोजहद कब बहुत सी अपनी चीज़ें छीन लेती है, पता ही नहीं चलता।मैं ट्रेन से उतर पड़ा था इस छोटे से स्टेशन पर जिसका नाम पुनदाग था।जाने कितनी बार मैं यात्रा के सिलसिले में यहाँ से गुजरा था पर आज ये छोटी सी जगह भी कितनी पराई सी लग रही थी।
हर बार सोचता था कि इस बार माँ को अपने साथ ले जाऊँ पर ले नहीं जा पाता था।एक तो माँ मना कर देती, दूसरे निधि घर छोटा होने का हवाला देकर चुप करा देती।
ख़ैर, मैं अपना बैग संभालता आगे बढ़ चला था किसी ऑटो रिक्शा के इंतज़ार में... घर जाने के लिए एकमात्र यही साधन जो था।तभी मेरी नजर स्टेशन पर बेंच के एक कोने में सिमटी एक बूढ़ी महिला पर पड़ी थी।ऐसा लगा जैसे कि मैं इन्हें जानता हूँ।
मैंने अपनी याददाश्त पर जोर लगाया, अरे ये तो अनूप भैया की माँ थी।मैं उन्हें भिखारिन समझ बैठता अगर पहचान नहीं पाता।मैले कुचैले कपड़े पहन कैसी गठरी सी बनी बैठी थी।अनूप भैया एक फौजी थे जो एक हमले में शहीद हो गए थे।
उनके छोटे भाई थे अजय भैया जो काकी के बड़े लाडले थे।
काकी ने उन्हें अपने हिस्से का खाना खिलाकर बड़ा किया था।
कितनी ही घटनाएं चलचित्र सी मेरे दिमाग में चल पड़ी थीं।
ख़ैर, ऑटो रिक्शा आ चुका था और मैं अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा था।
गाँव पहुँचा तो रसोई से आती पकवानों की खुशबू ने बेचैन कर दिया।माँ हमेशा की तरह मेरी पसंद की चीज़ें तैयार करने में व्यस्त थी।मैंने देखा माँ थोड़ी सी और बूढ़ी दिखने लगी है।
मैं खाना खाकर और माँ से अनुमति लेकर अपने बचपन के दोस्त दयाल के घर बढ़ चला।मुझे उन काकी के बारे में जानने की जल्दी थी।
मैं थोड़ी देर इधर उधर की बातें कर मुद्दे पर चला आया था।
" काकी ने ही बिगाड़ रखा था अजय को अपने हिस्से का खिला खिलाकर, उसी का फल भुगत रही हैं " उसने ज़रा गुस्से में कहा।
" मतलब ? " मैंने हैरानी से पूछा।
" काकी के लाड़दुलार ने अजय को परले सिरे का स्वार्थी बना दिया था।वो काकी से पैसे ऐंठता रहा और एक दिन घुमाने के बहाने स्टेशन ले जाकर छोड़ दिया। "
" उससे किसी ने संपर्क साधने की कोशिश नहीं की?"
" बहुत की,पर सब बेकार रहा, सब कहते हैं कलकत्ते में कोई बिजनेस कर रहा है। "
" और काकी ?"
" वो तब से अपने लाडले अजय की प्रतीक्षा में खड़ी हैं, कहती हैं कि वो आएगा। "
मैं लगभग रो पड़ा था।क्या ममता का ये प्रतिफल देते हैं बच्चे?आह !"
मैं अपने घर की ओर चल पड़ा था । मुझे इस बार माँ को भी अपने साथ लेकर जो जाना था और हाँ,उन काकी को भी किसी अच्छे वृद्धाश्रम में डालना था ताकि वो अपने जीवन के अंतिम क्षण कुछ सुकून से गुजार सकें।
आज जैसे मैंने बरसों बार अपने दिल की आवाज़ सुनी थी।
©अर्चना आनंद भारती
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.