आपने आखिरी बार कृषि, शिक्षा या स्वास्थ्य पर एक पूरा बुलेटिन कब देखा था? आपने मजदूरों, छात्रों,विज्ञान, प्रौद्योगिकी, गिरती हुई अर्थव्यवस्था पर अंतिम सार्थक चर्चा कब देखी थी, याद है आपको?
सालों पहले दूरदर्शन के दिनों में ये खबरें विशेष कार्यक्रमों का हिस्सा होती थीं। तब कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम आते थे जिन्हें भले ही आज आप उबाऊ कहकर खारिज कर दें,लेकिन ये हमारे सरोकार की खबरें थीं।
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है और अखबारों ने स्वतंत्रता संग्राम में भी कभी अहम भूमिका निभाई थी।भारतीय पत्रकारिता वर्षों अपनी विश्वसनीयता के लिए जानी जाती थीं लेकिन 90 के दशक में सैटेलाइट चैनलों के आगमन के साथ ही पत्रकारिता में निजी चैनलों का आगमन हुआ ।आशा थी कि सैटेलाइट चैनलों के आने से अधिक विस्तृत, तथ्यपरक और निष्पक्ष जानकारी मिलेगी लेकिन इसके उलट व्यावसायिकता ने अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए।
टेलीविजन के निजीकरण ने खबरों का एक बड़ा बाजार बना दिया।बड़े बड़े कारपोरेट घराने इन चैनलों के मालिक बन गए और रही सही कसर मीडिया पर सरकार के नियंत्रण ने पूरी कर दी।बड़ी बड़ी कंपनियों ने खबरों को प्रायोजित करना शुरू कर दिया और 'जो बिकता है वही दिखता है' की तर्ज पर टीआरपी का खतरनाक खेल शुरु हो गया।अब उन्हीं खबरों को प्रमुखता दी जाने लगी जिन्हें अधिक प्रायोजक मिलें।
आम जनता के हितों की अनदेखी की जाने लगी और ग्लैमर और राजनीति से जुड़ी खबरें इन चैनलों की शोभा बढ़ाने लगीं।हाल के दिनों में एक अभिनेता के असामयिक निधन से जुड़ी खबरें इसका ताजा उदाहरण हैं।बेशक ये एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी लेकिन मीडिया ने इससे जुड़ी खबरों को दिखाने में जिस तरह की सतर्कता दिखाई वह हैरतअंगेज है।हर चैनल पर घंटों इस मुद्दे पर बहस होती और ऐसा विश्लेषण किया जाता जैसे मीडियाकर्मी कोई जज,वकील,डॉक्टर या मनोवैज्ञानिक हों।इसी दौरान देश में हुई कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे सीमा विवाद ,गिरती जीडीपी ,बढ़ती महामारी आदि की अभूतपूर्व अनदेखी की गई।
ये जनता के सरोकार की खबरें थीं और इन्हें दिखाया जाना आवश्यक था लेकिन ये खबरें बिकाऊ नहीं थीं।
आज समाचार चैनल खोलते ही आप समझ जाते हैं कि वह किस राजनीतिक दल का समर्थक है और उसकी फंडिंग कौन करता है।अधिकतर अखबार भी बड़े बड़े राजनीतिक या कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित किए जाते हैं और ये पहले से तय किए गए मानदंडों पर खबरें परोसते हैं। जाहिर है ऐसे में निष्पक्ष पत्रकारिता की बातें बस किताबी बनकर रह गई हैं।
सोशल मीडिया की मौजूदगी ने भी आग में घी का काम किया है।सोशल मीडिया जहाँ आम जनता की आवाज बनकर सामने आई है वहीं इसने सांप्रदायिक मनोमालिन्य बढ़ाने का भी काम किया है।अक्सर राजनीतिक पार्टियों से जुड़े लोग सोशल मीडिया के जरिए नफरत फैलाने का काम करते हैं ताकि उसका राजनीतिक लाभ उठाया जा सके।
हम वयस्कों से समझदार तो 7वीं कक्षा के बच्चे हैं जो जानते हैं कि 'Media is all about marketing'.टीआरपी की चकाचौंध में निष्पक्ष पत्रकारिता धीरे धीरे दम तोड़ती जा रही है।मुझे विश्वास है कि जीतोड़ मेहनत करता मजदूर भी जब शाम में टीवी खोलता होगा तो उसे निराशा ही हाथ लगती होगी।
बहरहाल, ये याद रखें कि ये हमारे आपके सरोकार की खबरें नहीं हैं।बेहतर है कि हम टीवी चैनल देखने की बजाय पत्र - पत्रिकाएँ पढ़ें और एक से अधिक अखबार पढ़ें ,स्थितियों को समझें और फिर किसी निष्कर्ष पर पहुंचें।आपसे मेरा अनुरोध है कि अपनी आँखें खोलिए, समझदार दर्शक पाठक बनिए और संभव हो तो विज्ञान ,शिक्षा आदि से जुड़े चैनल देखिए।
हालांकि यह पत्रकारिता का संक्रमण काल है लेकिन एक जिम्मेदार पाठक और दर्शक के तौर पर हम अपेक्षा कर सकते हैं कि पत्रकारिता एक दिन जनता की नब्ज पहचानेगी, इस संक्रमण काल से उबरेगी और इसकी प्रतिष्ठा की वापसी होगी।तब तक के लिए चरैवेति चरैवेति।अशेष!
©अर्चना आनंद भारती
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत ही शानदार लेख, 👏👏टॉपिक सिलेक्ट कर लो मीडिया वाला topic section में
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