बड़े यात्राप्रिय थे बाबूजी, पैरों में चक्के लगे थे उनके।यूँ तो उनका नाम रामप्रसाद था लेकिन गाँव भर के लोग उन्हें आदर से बाबूजी ही कहते। बढ़िया खाना, मोटा पहनना और देशभर की यात्रा करना, ये उनके प्रिय शगल थे। गाँव में उनकी यात्राओं की कहानियाँ मशहूर थीं।
ख़ैर, ये तो एक जमाने की बात थी। अब वह दो विवाहित बेटों के पिता थे। बड़ा बेटा रघु प्रतिभाशाली था लेकिन बड़ा होते ही वह व्यवसाय में पिता का हाथ बँटाने लगा। छोटा बेटा शंभु पढ़ लिखकर बड़ा अधिकारी हो गया था और सुदूर मुंबई में जा बसा था।बड़े बेटे की जान बाबूजी में बसती थी और बाबूजी की शंभु में, वो कहते हैं न कि दूर के ढोल सुहाने। बाबूजी की देखभाल करता रघु उनकी हर ज़रूरत का ध्यान रखता और एक पुकार पर हाजिर हो जाता लेकिन बाबूजी के अवचेतन की डोर दूर मुंबई बैठे बेटे से कसकर बंधी थी। भोले - भाले रघु ने कभी बाबूजी के इस पुत्रप्रेम पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया।
उम्र बाबूजी पर असर छोड़ने लगी थी लेकिन यात्राएं उनकी कमजोरी थीं। ऐसे में छोटे बेटे ने मुंबई आने का आमंत्रण क्या दिया कि उनकी बाँछें खिल उठीं।
"नहीं बाबूजी, आप कहीं नहीं जाएंगे।" चिंतित होकर रघु कह उठा था। भीड़ भरी मुंबई में बाबूजी के जाने की बात से वह काँप उठा था। कैसे भला सामान चढ़ाएंगे - उतारेंगे और फिर अब बदन में वैसी फुर्ती भी नहीं रही।
"तू चिंता मत कर, शंभु आ जाएगा स्टेशन मुझे लेने।और मुंबई मैं पहले भी जा चुका हूँ कई बार, कोई पहली बार तो जा नहीं रहा।"
"तब की बात और थी बाबूजी, अब आपकी उम्र वैसी नहीं रही।"
"उम्र क्या चीज है? आज भी तुमसे अधिक फुर्तीला हूँ।" बाबूजी उम्र की बात पर बच्चों से रूठ गए थे।
रघु समझ गया कि अब बहस का कोई फायदा नहीं।उसने हार मानकर उन्हें मुंबई भेजने की तैयारी शुरू कर दी। उनकी दवाएं, गरम कपड़े, एक हल्का बिस्तर, सूखा नाश्ता आदि बांधकर सशंकित मन से रघु उन्हें स्टेशन तक छोड़ आया।
"बाबूजी ध्यान रखिएगा अपना। रास्ते के लिए हल्का बिस्तर है। ठंड लगे तो चादर ओढ़ लीजिएगा। मफलर भी साथ रख दिया है..." हजार नसीहतें देता रघु धड़कते दिल से बाबूजी को ट्रेन पर बैठा आया।
"मैं कोई बच्चा नहीं हूँ, रख सकता हूँ अपना ध्यान..." जाने क्यों बाबूजी का स्वर भीग आया था।
"बाबूजी, पहुंचकर फोन कीजिएगा" रघु ने पैर छूकर उन्हें विदा किया।
डेढ़ दिन का सफर तय करने के बाद बाबूजी आज मुंबई पहुंचे थे। भीड़ भरा शहर, लोगों का सैलाब जैसे उमड़ा पड़ता था। स्टेशन पर गाड़ी रुकी, कुली की मदद से सामान उतारकर बाबूजी की बूढ़ी आँखें पुत्र को ढूंढने लगीं।
"नमस्कार, आप ही रामप्रसाद जी हैं न?" नाम सुनकर बाबूजी चौंके थे। एक वर्दीधारी ड्राइवर सामने खड़ा था।
"मुझे शंभु भैया ने भेजा है।" उनकी शंका को दूर करने के लिए अपरिचित ने साथ लाया परिचयपत्र दिखाते हुए कहा।
"शंभु लेने नहीं आया?" तनिक नाराजगी से बाबूजी ने पूछा।
"भैयाजी की मीटिंग थी, इसलिए मुझे लिवाने भेजा है।"
रास्ते भर एक अजनबी के साथ जाते हुए सशंकित भाव से बैठे बाबूजी का सारा उत्साह जैसे हवा हो गया था। खैर, एक आलीशान बहुमंजिला इमारत के सामने गाड़ी रुकी। ड्राइवर उन्हें उनके बेटे के फ्लैट पर छोड़कर चला गया था। महँगा काफ्तान पहने, करीने से कटे बालों वाली आधुनिका बहू ने फीकी सी मुस्कान से स्वागत किया। छह वर्षीय पोता उन्हें देखते ही सहमकर माँ की गोद में जा छुपा।
"कोई तकलीफ तो नहीं हुई बाबूजी?" प्रश्न में चिंता से अधिक औपचारिकता का समावेश था।
"नहीं" बाबूजी ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। उन्होंने एक नजर घर पर दौड़ाई थी। आधुनिक सुख सुविधाओं से युक्त यह महानगरीय घर फिल्मों में दिखाई देने वाले किसी सेट जैसा भव्य था। बूढ़ी आँखें इस चाकचिक्य में जाने क्यों गाँव का अपनापन ढूंढने लगीं। किसी शायर ने क्या खूब कहा है - "दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है!"
"आप हाथ - मुंह धोकर कपड़े बदल लें। शंभु आते ही होंगे।" बहू की आवाज सुनकर उनकी तंद्रा भंग हुई। बेटे का नाम ऐसे बहू के मुंह से सुनकर उन्हें झटका सा लगा था। जिस बेटे के लिए वो मीलों की यात्रा तय करके आए थे, वो जिगर का टुकड़ा अभी भी ऑफिस में था। बैग से कपड़े निकालकर बाबूजी अत्याधुनिक बाथरूम में घुस गए। नहा - धोकर जब वो बाहर आए, उन्हें जोरों की भूख लगी थी।
क्रमशः
अर्चना आनंद भारती
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