अंधी खिड़कियाँ

....और उसके सोने जैसे टमाटर मिट्टी के भाव लेकर चलते बने। दस बजने को थे, आसपास पुलिस वाले चहलकदमी करने लगे थे... कोरोनाकाल में हाशिये पर खड़े लोगों की एक मर्मस्पर्शी कहानी

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ARCHANA ANAND
ARCHANA ANAND 24 May, 2021 | 1 min read
#Social issues

इस बड़े से शहर में हजारों बहुमंजिली इमारतें थीं। वह निकटवर्ती गाँव से आता था यहाँ सब्जियाँ बेचने। उसे खूब अचंभित करतीं ये बहुमंजिली इमारतें और इन इमारतों की लाखों लाख खिड़कियाँ...गोया खिड़कियाँ नहीं शहर की लाखों जोड़ी आँखें हों जो बस उसे ही देख रही हों एकटक।

वो हैरान होता कि ये आँखें कभी सोती होंगी या नहीं या फिर जगती रहती होंगी रातभर ... दिप् दिप् करके।

उसकी हैसियत नहीं थी कभी इन खिड़कियों के अंदर से झांकने की सो बाहर से ही मन भर निहार लेता।

किसान था वो, कोई बड़ा प्रगतिशील वाला नहीं एक टुकड़ा जमीन पर सब्जियाँ उगाने वाला। जो उपजाता, उसे शहर में बेच आता।शहर में इसलिए कि यहाँ गाँव से थोड़े अच्छे दाम मिलते।

इस बार टमाटर बोए थे उसने...खूब रसीले लाल - लाल टमाटर। हरे - हरे पत्तों के बीच कैसे सुंदर दिखते जैसे शहरों में बत्तियाँ जलती हैं। फसल देखकर आँखें जुड़ा जातीं उसकी। और जुड़ाए क्यों न, रात - दिन, धूप - बारिश उसने अपना खून पसीना जलाया था। बड़ी उम्मीद थी कि इस बार खूब अच्छे दाम मिलेंगे।

जाने किन विचारों में खोया था कि तभी पत्नी ने आकर तंद्रा भंग की - " क्या देख रहे जी?"

" देख ना खेतों में रसीले टमाटर कैसे खिल रहे जैसे शहरों में बिजली के लट्टू सजते हैं...दिप् दिप्

" हाँ, अबकी फसल खूब अच्छी आई है। बढ़िया दाम मिलेंगे, है न?"

फिर उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर बोलने लगी " इस बार जो थोड़े पैसे आ जाएँ न,हम बरामदे में दक्खिन की खपरैल बदल देंगे। बारिश से पहले जो मरम्मत हो जाए तो दुख दूर हो।"

पत्नी का मुँह देखने लगा वह चुपचाप। कितनी भोली है बेचारी। न कपड़े - लत्ते न ज़ेवर, माँग रही तो क्या खपरैल... मन भर आया उसका।

फसल पककर तैयार थी लेकिन जाने कहाँ से ये मरी महामारी चली आई। बाज़ार, दुकानें सब धड़ाधड़ बंद होने लगीं। सड़कें सुनसान हो गईं। सारी रौनक को शैतान निगल गया हो जैसे।

इस दुर्भिक्ष की तो कल्पना भी नहीं की थी उसने। आज पंद्रह दिनों से घर बैठा था, जाए कहाँ? बेचे क्या?

लेकिन गरीब की हथेली में बड़ा सा छेद होता है तो उस छेद से सब पैसा निकल गया था और अब खाने के लाले पड़े थे। खाली टमाटर से तो पेट नहीं भरता न? 

" सुनो जी, मैं क्या कहती हूँ कि थोड़ा शहर हो आते।जो थोड़ी बहुत बिक्री हो जाती।घर में अन्न का एक दाना नहीं बचा है।" बड़े संकोच से पत्नी ने कहा।

"क्या कुछ भी नहीं बचा है?" उसने बड़ी आशा से पूछा। जवाब में पत्नी ने खाली भंडार दिखा दिया।

कोई उपाय न देख उसने टमाटर तोड़कर बाँध लिए साईकिल पर। पत्नी ने फौरन एक पानी की बोतल साथ दे दी और हाथ से तैयार मास्क भी।

" सुनो, ई मास्क लगा लो। सुरक्षा रहेगी।"

उसने चुपचाप मास्क पहनकर प्रस्थान किया।जगह जगह पुलिस वाले लोगों को इत्तला कर रहे थे कि दस बजे के बाद कर्फ्यू लगा दिया जाएगा। सूरज देवता भी आज खूब मेहरबान थे।

बाज़ार में घंटे भर इंतज़ार करने के बाद हताश होकर सुनसान गलियों में फेरे लगाने लगा " टमाटर ले लो,टमाटर"

काफी देर यूँ ही निराश घूमने के बाद अचानक एक घर का दरवाजा खुला।

"कैसे दिए टमाटर?"

"आठ रुपये बीबीजी"

" आठ रुपये? लूट मचा रखी है? बाजार में कोई चार रुपये ना पूछ रहा?"

"क्या? मतलब पंद्रह दिनों में सब्जियों के भाव इतने गिर गए?" उसने अपने आप से सवाल किया।

थोड़ा डरते हुए कहा "छह रुपये लगा दूँगा"

"पाँच रुपये से एक पैसा ज्यादा नहीं दूंगी।देना है तो दो वरना रहने दो।" कहकर महिला वापस जाने लगी।

"नहीं, आप पाँच के ही भाव ले लो।" बेहद पीड़ा भरे स्वर में उसने कहा।

आसपास से कुछ अन्य लोग भी आ गए और उसके सोने जैसे टमाटर मिट्टी के भाव लेकर चलते बने।दस बजने को थे, पुलिस वाले आसपास चहलकदमी करने लगे थे। कर्फ्यू लागू करने की जल्दी थी। फ़ौरन पास की राशन दुकान से कुछ ज़रूरी सामान लेकर, साईकिल में बाँधकर बुझे मन से लौट पड़ा। चिलचिलाती धूप, मास्क, भूख - प्यास सबने मिलकर उसका हाल बेहाल कर रखा था। कमर में बंधी बोतल टटोली तो वो भी खाली निकली।उसकी आँखों में महीनों की हाड़तोड़ मेहनत चलचित्र सी घूमने लगी।अचानक उसे लगने लगा जैसे शहर भर की खिड़कियाँ उसे घूर रही हैं। पूरा शहर उसके सामने गोल - गोल घूमने लगा। उसके होठों से अस्फुट स्वर निकला -"पानी"

लेकिन कोई एक खिड़की न खुली, किसी एक शहरी ने पानी न पूछा। वह गश खाकर गिर पड़ा। उसकी मुंदती आँखों ने देखा, लाखों लाख आँखों वाला ये शहर आज अंधा हो चुका था।


मौलिक एवं अप्रकाशित

©अर्चना आनंद भारती

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