झुमरी का विवाह

आज झुमरी विदा हो गई थी और वह कच्ची झोपड़ी किसी विधवा की सूनी मांग की तरह उजाड़ दिख रही थी।इसी श्रीहीन घर की एक दीवार से हरिया टिका बैठा था...किसानों की अंतहीन व्यथा को रेखांकित करती एक मर्मस्पर्शी कहानी

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ARCHANA ANAND
ARCHANA ANAND 01 Jan, 2021 | 1 min read
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वह शादियों का मौसम था।गाँव में बहुत से घरों में बन्ने - बन्नी के गीत गाए जा रहे थे।इस तंगहाली में बेटी का विवाह कितना दुष्कर है, यह सिर्फ उस किसान पिता का दिल जानता था जो इस वक्त अपनी कच्ची झोपड़ी की मिट्टी की दीवार से टेक लगाए बैठा था।

कभी गाँव के 14 बीघे में लहलहाती थी उसके बाप - दादों की फसल जो साहूकारों की भेंट चढ़ते - चढ़ते कुल जमा डेढ़ बीघे रह गई थी।ये डेढ़ बीघा खेत,एक जोड़ी बैल और उसका भुजबल,बस यही उसकी समस्त संपत्ति थे जिसके सहारे वह अभी तक भाग्य से लड़ता आया था।

"अरहर कितना मीठा है बापू" 15 साल की बिटिया नई उगी अरहर की फली चबाते हुए बोली थी।

"जा - जा अल्हड़ कहीं की,15 साल की उमर में भी बचपना ना गया तेरा" माँ की झिड़की सुनकर झुमरी वहाँ से भाग खड़ी हुई।

"कुछ होश भी है? बिटिया सयानी होती जा रही है और तुम्हें खेती - किसानी से ही फुर्सत नहीं!मैं कहती हूँ इसी लगन में इसके हाथ पीले कर दो।"

"क्या सचमुच बिटिया इतनी बड़ी हो गई?" कुछ अभाव और कुछ लाड़ से हरिया की पलकें भीग गईं।

बीज, खाद, पानी, दवाईयाँ और बैलों का चारा जुगाड़ते पैसे निकल जाते।जो चार पैसे बचते उससे किसी तरह ज़िंदगी की गाड़ी सरक रही थी।ऊपर से बेटी का विवाह...सोचता हुआ वह खेत की ओर बढ़ चला।इस साल फसल खूब लहलहायी थी।

"बापू ,इस बार अरहर की फसल कितनी अच्छी आई है, खूब दाम मिलेगा न?" बेटे केशव ने भोलेपूछा।

"बहुत अच्छी?30-40 रुपये किलो भी बिक जाए तो भाग्य सराहूँ। बाजार में भले ही 100 रुपये किलो बिक जाए लेकिन हमारे हाथ तो इतना ही आना है।ऊपर से बिचौलिए खरीदकर जैसे एहसान करत हैं हम पर।" खिन्न हो उठा था हरिया।

"तू बड़ा होकर थोड़ा लिख पढ़ ले तो अपने दुर्दिन दूर हों।" जैसे शून्य में ताकता हुआ वह बोला था।तभी एक ओंआ,ओंआ की तेज आवाज़ गूंजी और उसकी तंद्रा टूटी।सामने उसका पालतू मोर खड़ा था जिसे वह प्यार से 'नीलकंठ' बुलाता था।झुमरी लेकर आई थी उसे।उसका जी जुड़ा उठा।

"आओ नीलकंठ महाराज, आओ,तुम तो खूब खिल रहे आज",कहता हुआ वह उसे दाने खिलाने लगा।किसानों की जेब भले ही फटी हो,दिल खूब बड़ा होता है।

तभी साहूकार करोड़ीमल आ धमका।

"इस बार फसल तो खूब अच्छी हुई है।" उसने हरिया से कहा।हरिया सिहर उठा, इस वाक्य का मतलब जानता था वह,अनपढ़ हरिया बैंकिंग और नेट बैंकिंग जैसे शब्दों से अनजान था अब तक।

"जी,भगवान की कृपा है" उसने जैसे - तैसे कहा।

"तो हमें भी कुछ प्रसाद मिलेगा न?" साहूकार ने झुमरी पर एक भरपूर नज़र डालते हुए कहा।इस दृष्टि का अर्थ समझते ही उसका हृदय आशंका से भर गया।इस घटना के फ़ौरन बाद वह भागदौड़ में जुट गया।एक अच्छे से घर में झुमरी का रिश्ता तय हो गया लेकिन पैसों का जुगाड़ इतना आसान नहीं था।

आखिरकार घर गिरवीं रखकर और पत्नी राधा के जो थोड़े बहुत गहने थे,उन्हें बेचकर जैसे तैसे झुमरी का विवाह संपन्न हुआ।बेटी के विवाह को गंगा नहाना क्यों कहते हैं, इसका अर्थ हरिया को उस दिन ठीक - ठीक समझ आया था।

आज झुमरी विदा हो गई थी और वह कच्ची झोपड़ी किसी विधवा की सूनी मांग सी उजाड़ दिख रही थी।इसी श्रीहीन घर की एक दीवार से हरिया टिका बैठा था।

शादी में कितना खर्चा आया ,कितने लेनदारों का कितना पैसा बाकी है और फसल बेचकर कितना वसूल हो पाएगा, इन सबका हिसाब लगाता वह जाने कब नींद की गोद में जा समाया।नींद में भी लेनदार ,साहूकार देखता हरिया जाने कितनी और देर सोया रहता कि तभी राधा ने उसके कंधे झिंझोड़े "अरे सुनते हो झुमरी के बापू, देखो तो खेत में कितने मवेशी घुस आए हैं, पूरी फसल बरबाद किए जा रहे।"

हरिया हड़बड़ाया सा उठा और सीधा खेत की ओर...वहाँ खेत में जाने कहाँ से तगड़े जंगली भैंसे घुसकर भंडारे में जुटे थे।दोनों जने मिलकर हाँकते लेकिन पशु जाने का नाम न लेते।वनों के साथ साधन - संपन्न लोगों ने जो विनाश लीला खेली थी,उसका दंड तो हरिया जैसे साधनहीनों को ही भुगतना था।

तभी 'अरे,अरे' कराहता हुआ हरिया गिर पड़ा।एक जंगली भैंसे ने उसे तेज पटखनी दी थी।शायद उसे अपने महत्वपूर्ण कार्य में यह व्यवधान रास नहीं आया था।हरिया खुद को संभाल न सका और गिर पड़ा।एक आधा पेट खाकर ज़िंदगी की जंग लड़ रहे किसान में भला ताकत ही कितनी थी?

लेकिन वह जंगली भैंसा जैसे हरिया के लिए यमराज बनकर आया था।इस बार उसने हरिया के सीने पर प्रहार किया।उसके सीने में तेज दर्द उठा और राधा जब तक संभाल पाती तब तक सब खत्म हो चुका था।लेनदारों का सारा कर्ज अपने कंधों पर लिए हरिया इस नश्वर संसार से विदा ले चुका था।

पल भर में चीख - पुकार मच गई।उसी रोज आधी रात में राधा अपने बचे हुए सामान और 12 वर्षीय बेटे के साथ किसी अनजान शहर की ओर कूच कर गई, माथे पर प्रवासी मजदूर की मुहर लगवाने।अपनी लहलहाती फसलों को अनाथ छोड़कर एक किसान परिवार नियति के क्रूर हाथों लुट चुका था।

अशेष,

मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित

©अर्चना आनंद भारती


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ARCHANA ANAND

archana2jhs

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Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Kumar Sandeep · 3 years ago last edited 3 years ago

    हृदय के हर कोने में अपनी एक अमिट छाप छोड़ती हुई कहानी

  • ARCHANA ANAND · 3 years ago last edited 3 years ago

    हार्दिक आभार भाई 😊

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