नब्बे का वो दशक और हमारे छोटे से ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर विरह गीत गाता नायक -
"छू के यूँ चली हवा, जैसे छू रहे हो तुम
फूल जो खिले थे वो,शूल बन गए हैं क्यों
जी रहा हूँ इसलिए, दिल में प्यार है तेरा
जुल्म सह रहा हूँ क्यों, इंतज़ार है तेरा
फिल्म थी रोजा और नायक थे अरविन्द स्वामी, लकदक करते और सिक्स पैक दिखाते नायक कम छिछोरे ज़्यादा दिखने वाले मुंबईया नायकों की भीड़ से एकदम अलग अरविन्द की ये सौम्य छवि दिमाग में घर कर गई।ये साल 94 था ,मैं तब बमुश्किल 10 की रही हूँगी पर वो झील सी गहरी आँखें दिल में उतर गईं।
बड़े होते - होते दीवानगी का ये आलम भी बढ़ता चला गया।इतनी हिम्मत तो थी नहीं कि पोस्टर और कैलेंडर लगाकर अपने प्यार का एलान कर दें तो गुपचुप तरीके से अपने प्यार को आगे बढ़ाया।
अखबारों में जहाँ भी अरविन्द नज़र आते, तस्वीरें काट ली जातीं और बना लिए जाते बुकमार्क्स जो मेरी किताबों की शोभा बढ़ाते।
और तो और,अपने नायक के चक्कर में 'रोजा' और 'बॉम्बे' के गाने हजारों बार सुन गई मैं।लेकिन वो कहते हैं न कि इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते तो भई हमारे छोटे भाई - बहनों को भी भनक लग गई।फिर तो वो सब भी हमें चिढ़ाने लगे इनके नाम से।
खैर, आखिर वो दिन भी आया जब हमारी शादी तय कर दी गई एक सलोने राजकुमार के साथ।रोके में मेरे ढीठ भाई ने कान में फुसफुसाकर पूछा - "क्यों दीदी, मिल गए अरविन्द स्वामी?"
ना भई,अरविन्द तो न मिले हमें पर स्वामी मिल गए।अब हम भी क्या करते?कोई कब तब आकाशकुसुम को तरसे?
तो मन में अरविन्द को बसाए हम हो लिए अपने स्वामी के पर दीवानगी न गई भाई साहब।ये जनाब आज भी जब परदे पर दिखते हैं तो दिल की हर धड़कन पुकार उठती है "स्वामी, स्वामी" ब्लश...ब्लश !!
©अर्चना आनंद भारती
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Nice
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