शहर के बीचों बीच बनी इस लाल कोठी के मालिक रघुनाथ बाबू आराम कुर्सी पर अकेले बैठे थे। मन में अतीत की घटनाएं चलचित्र सी घूम रही थीं। बच्चों की अठखेलियां, पत्नी कांता के पायलों की रूमझुम, उसके हाथों से बने पकवानों की खुशबू और न जाने क्या-क्या?
एक समय था जब शहर के धनी माने जाने वाले रघुनाथ बाबू की लाल कोठी बच्चों, पत्नी और नौकर-चाकरों से गुलजार रहती थी। पत्नी कांता तब कितना समझाती थीं कि कम से कम एक बेटे को तो पुश्तैनी व्यवसाय में लगा लो। आंखों के आगे भी रहेगा और संपत्ति की देखभाल भी होती रहेगी पर रघुनाथ बाबू नहीं चाहते थे कि अधूरी शिक्षा का जो मलाल उन्हें है वह उनके बेटों को हों । दोनों बेटे उच्च शिक्षा अर्जित कर काले कोस जा बसे थे। सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा करने वाली पत्नी कांता भी उन्हें छोड़ अनंत यात्रा पर जा चुकी थीं।
जीवन की सांझ में उन्हें पत्नी की बातें बहुत याद आतीं। दोनों बेटे छुट्टियों में घर आते तो थे पर मेहमानों की तरह। उनका उन्हें अपने साथ चलने को कहना भी रस्म अदायगी भर होती। पुरखों से मिली इस कोठी को रघुनाथ बाबू ने कभी बड़े चाव से सजाया संवारा था। पत्नी कांता भी तो इन सब में कितने मनोयोग से जुटी रहतीं। उनके होते तो रघुनाथ बाबू को किसी चीज़ की चिंता ही न होती पर पत्नी के जाते ही उनकी ज़िंदगी जैसे बेरंग सी हो गई थी। कोठी में हमेशा लहलहाने वाले फूलों के पौधों की जगह जंगली झाड़ियों ने ले ली थी। ले-देकर एक घरेलू नौकर मोहन ही था जो इस वीराने को भरने की भरसक कोशिश करता। उसका परिवार पीढ़ियों से इस कोठी को अपनी सेवाएं देता आ रहा था। मोहन उनकी देख रेख प्राण पण से करता पर उम्र के इस पड़ाव पर कभी कभी उनका जी बहुत घबराता । पिछले कुछ दिनों से उनकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती थी वरना एक चक्कर शहर के वृद्धाश्रम का ही लगा आते। वहां अपने जैसे लोगों से मिलकर उन्हें बड़ी शांति महसूस होती।
''बाबूजी, खाना ठंडा हो जाएगा, खा लीजिए ना।"मोहन के आग्रह ने उनकी तंद्रा भंग की।
"नहीं, मेरा मन नहीं है"
"थोड़ा सा खा लीजिए, सुबह भी कुछ नहीं खाया आपने"
अनमने से बाबूजी ने थाली खींच ली। दो कौर खाते ही न जाने कहां से खांसी का ज्वार सा उठा। घबराया मोहन पानी का गिलास लेकर दौड़ा। "डॉक्टर ने आपको बदपरहेजी से रोका था ना, क्या ज़रूरत थी अमरनाथ के बेटे की शादी में जाने की? "मोहन के अधिकार भरे स्वर ने पत्नी कांता की याद दिला दी थी।
"जाने दे, सपन और कमल ने क्या कहा? कब आ रहे हैं वो दोनों? मेरे मरने के बाद आएंगे लगता है।"
"आप खुद ही पूछ लीजिए ना", कहते हुए मोहन ने रिसीवर बढ़ा दिया था। पुराने ज़माने के बाबूजी को मोबाइल का प्रयोग रॉकेट साइंस की तरह लगता था। फ़ोन हाथ में लेकर जाने क्या बातें कीं कि फ़िर उसी उदासी ने आ घेरा। दोनों बेटे छुट्टियां मिलने में असमर्थता जता चुके थे।
क्रमशः
कापीराइट, अर्चना
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