औरत तेरी खुशियों ने बदले कितने रूप
कब ससुराल की छाँव हुई, कब मैके की धूप
ठाँव बदलती ही रही, मिला न कोई ठौर
जिस औरत को घर मिला, होगी कोई और
घर संभालने में अपनी खर्ची उम्र तमाम
जिन पुरुषों को जन्म दिया, मिला उन्हीं का नाम
ऐसी क्रूर व्यवस्था पर,किया तनिक न रोष
सहता जो अन्याय को, होता उसका दोष!
© अर्चना आनंद भारती
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