कब से देखती आ रही थी उसे, लाल-लाल आँखों वाला डरावना सा युवक।मेरे घर के सामने वाले मोड़ पर उसकी छोटी सी चाय की दुकान थी।बच्चियों से उसे कोई ख़ास नफ़रत थी।छोटी बच्चियों को सड़क पर खेलते देखा नहीं कि भगा देता।मुझे उसकी इस आदत से ख़ासी चिढ़ थी।
वैसे इस आदत के सिवाय उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था।दिनभर चुपचाप अपना काम करता रहता।मैं एक स्थानीय स्कूल में पढ़ाती थी।पति बिजनेस के सिलसिले में ज़्यादातर बाहर रहते थे।इस अकेलेपन को दूर करने के लिए शौकिया तौर पर शुरू किया गया पठन-पाठन अब मेरी ज़िंदगी बन चुका था।
दिसम्बर का महीना था और वार्षिकोत्सव की तैयारी चल रही थी।मेरी सहयोगी शिक्षिका नहीं आई थीं और मेरी मेज पर ढेर सारा काम था इसलिए मुझे काम निबटाते-निबटाते काफ़ी देर हो गई थी।स्कूल से बाहर निकली तो शाम का झुटपुटा सा हो चुका था।सर्दियों में वैसे भी शाम जल्दी हो जाती है।बाहर आकर जल्दी से स्कूटी निकालने की कोशिश की तो देखा कि एक पहिया पंक्चर है...उफ़्फ़्, अब मैं क्या करूँ? सोचा आज ऑटो से चली जाती हूँ।पर जब सड़क पर पहुंची तो देखा एक भी ऑटो नहीं।आसपास मौजूद लोगों से पूछने पर पता चला कि ऑटो वालों की हड़ताल चल रही है।घर एक सँकरी गली के अंदर था जहाँ बसें नहीं जाती थीं।शाम के गहराते अंधेरे के साथ मेरा डर भी गहराता जा रहा था।
तभी वहाँ वही डरावना सा युवक रुका,अपनी खटारा सी बाइक लिए,शायद दुकान बंद कर लौट रहा था।
"अरे दीदी, क्या हुआ?यहाँ क्यों खड़ी हो?" उसने बड़ी सहजता से पूछा।मैं एक पल को घबरा सी गई।पर मेरे पास उस समय कोई चारा नहीं था।वहाँ मौजूद लोगों को मैं जानती भी नहीं थी।डरते डरते मैंंने उसे कारण बता दिया।
"आइए, मैं आपको घर छोड़ दूँ।" उसने गंभीरतापूर्वक कहा।
मैं आशंकाओं से घिरी खड़ी थी।वहाँ उपस्थित लोग भी मुझे ही प्रश्नवाचक दृष्टि से देखे जा रहे थे।आख़िर मैं चुपचाप उसकी बाइक पर बैठ गई।कुल 3 किलोमीटर का सफ़र मुझे सदियों सा लंबा लगा था।हालांकि वैसी कोई बात नहीं हुई पर घर के सामने पहुंचते ही मुझे तसल्ली सी मिली।वो मुझे छोड़कर मुड़ा ही था कि न जाने क्यों मैं कह बैठी,"चाय पीकर जाना।"
उसने बिना प्रतिकार के मेरी बात मान ली थी।मैं मिनटों में चाय बनाकर ले आई थी।वो चुपचाप नज़रें झुकाए चाय पीता रहा।मुझे अब ठीक-ठीक याद नहीं पर शायद मैं उसे घूर रही थी।उसे भी जल्दी ही महसूस हुआ तभी उसने नज़रें उठाईं।मुझे अपनी ओर देखते देख कह बैठा,"जानता हूँ दीदी, आप भी मुझे दूसरों की तरह गलत समझती हैं।।"
'न,नहीं तो!' मैं अस्फुट स्वर में बोली थी।उसकी आँखों में नमी तैर आई थी।शायद वो आज सब कुछ कह डालना चाहता था।मैंंने भी आँखों से उसे अनुमति दे दी थी।
"जानती हो दीदी, मैं सात साल का था और दिदिया 12 साल की जब बापू की मौत हो गई।माँ के सामने हमारी ज़िम्मेदारी थी।माँ दिनभर घरों में काम करती और मैं और दिदिया घर पर रहते, अकेले।दिदिया बड़ी प्यारी थी, एकदम गुड़िया जैसी।उस दिन मैं और दिदिया गली में खेल रहे थे कि चार हट्टे-कट्ठे गुंडे मेरी दिदिया को उठा ले गए, मेरी आँखों के सामने।मैं चिल्लाता रहा, पर कोई मदद के लिए नहीं आया।अगले दिन चौराहे पर दिदिया की लाश मिली थी।मेरी तो दुनिया ही तबाह हो गई थी, अम्मा की भी।तब से अम्मा ने वो गाँव छोड़ दिया और मुझे लेकर शहर आ गई।पर आज भी जब सड़क पर खेलती किसी लड़की को देखता हूँ तो दिदिया याद आ जाती है।कहीं किसी के साथ दिदिया जैसा कुछ..." आगे के शब्द उसकी हिचकियों में खो गए थे।और मेरे मन का सारा मैल उसके आँसुओं के साथ धुलता जा रहा था।अब मुझे उसकी आँखें डरावनी नहीं दिख रही थीं, उन आँखों में अब मुझे सिर्फ़ एक भाई दिखाई दे रहा था, सिर्फ़ एक भाई।
मौलिक एवं काल्पनिक
अर्चना आनंद भारती
Comments
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Amazing write up
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