खट्टी अमिया और वह देवदूत

हम अभी अपने इस बहुत महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम देने में जुटे थे कि जाने कहाँ से झमाझम बारिश शुरू हो गई... भोले भाले बचपन का एक बहुत प्यारा सा संस्मरण

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ARCHANA ANAND
ARCHANA ANAND 26 Nov, 2020 | 1 min read
#childhood tales



हम नब्बे के दशक के बच्चों का बचपन बड़ा रंगीन हुआ करता था।उजली भोर ,सुनहरी दोपहर और गुलाबी शामें

तब मोबाइल और इंटरनेट तो थे नहीं तो हम कस्बाई इलाके के बच्चे ज़्यादातर समय बड़ों के सान्निध्य में बिताते थे या आसपास के बाग - बगीचों में अपने दोस्तों के साथ।

ऐसी ही एक गर्म दोपहर को मैं अपनी एक दोस्त के साथ खेल रही थी।तब कोई 9 - 10 की रही हूँगी।ख़ैर ,तो खेलते खेलते हमें याद आया कि अपने आम के बगीचे में तो खट्टी - मीठी अमिया आ गई है तो क्यों न चलकर लुत्फ उठाया जाए।तो हम दोनों सहेलियाँ भाग चलीं उधर की ओर।वहाँ पेड़ हरी - हरी अमियों से लदा हमें आमंत्रण दे रहा था।

तो हमने एक पत्थर उठाया और करने लगे आम के पेड़ की ख़ातिरदारी... अब तो ऐसा सोचकर भी बुरा लगता है लेकिन तब हम बच्चे थे।

हम कच्ची पक्की अमिया तोड़ - तोड़कर इकट्ठी कर चुके थे।अदिति जो कि मुझसे उम्र में थोड़ी बड़ी थी उसका सुझाव था कि अमियों को इधर ही निपटा लिया जाए क्योंकि घर लेकर जाने पर मरम्मत का डर था।इसलिए तय हुआ कि क्यों न इसकी घुमौली बनाई जाए।तो दोस्तों ,घर से चुराकर लाई गई ब्लेड से बारीक - बारीक टुकड़े काटकर घुमौली निर्माण की दुरभिसंधि शुरू हो गई।

हम अभी अपने इस बहुत महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम दे ही रहे थे कि जाने कहाँ से झमाझम बारिश शुरू हो गई जिसने देखते ही देखते विकराल रूप धारण कर लिया।हमदोनों घबराकर वहाँ से भागने लगे।उन दिनों लिबर्टी की चप्पलें पहनना शान की बात होती थी और पापा ने मुझे पिछले ही हफ्ते नए डिजाइन की चप्पलें दिलवाई थी इस शर्त पर कि इस बार चप्पलें सालभर चलानी पड़ेंगी।

और शान दिखाने के चक्कर में मैं उन्हें ही पहनकर चली गई थी।इस अचानक आई आफत में हम बुरी तरह फँस चुके थे।बारिश की धार से बगीचे की मिट्टी पूरी कीचड़ में तब्दील हो चुकी थी।मैं और अदिति बड़ी मुश्किल से पाँव जमाते हुए चल रहे थे।बगीचे से घर तक आती कच्ची सड़क के साथ - साथ बड़ा नाला बहता था जो आज पूरे उफान पर था।तभी अचानक मेरे पाँव से चप्पल फिसली और सीधे नाले में जा गिरी।मुझे तो काटो तो खून नहीं।मैं बदहवास सी उस ओर दौड़ने लगी जिस ओर चप्पल बही जा रही थी।बेचारी अदिति भी अपना दोस्ती का धर्म निभाती हुई मेरे साथ - साथ भाग रही थी।

नाला एक खेत में खुलता था और वहाँ उसका उफान चरम पर था।पर नई चप्पल का मोह ऐसा था कि मैं उसके मुहाने के पास जा खड़ी हुई।गरजता हुआ नाला अब मुझे साक्षात् यमराज सा महसूस हो रहा था।मैं उसमें हाथ डालकर चप्पल निकालने को हुई कि कीचड़ में जा गिरी।जितना निकलने की कोशिश करती उतना ही धँसती जाती।बेचारी अदिति रोती हुई मदद के लिए चिल्लाने लगी।लेकिन उस सूने खेत में भला हमारी कौन सुनता?

तभी अचानक चमत्कार हुआ।जाने कहाँ से हमारे घर के सहायक रामू काका प्रकट हो गए।उन्होंने हमारी हालत देखी तो एक पल को तो वो हैरान से खड़े रह गए।फिर फटाफट कहीं से एक लंबा बाँस जुगाड़कर लाए और मेरी ओर फेंककर मजबूती से पकड़ने को कहा।फिर बड़ी मुश्किल से मैं जैसे - तैैसे किनारे को आ लगी।

अब बारी चप्पल की थी।मैं रो - धोकर उनसे चप्पल निकालने का आग्रह करने लगी।उन्होंने उसी डंडे की सहायता से चप्पल निकाली और अदिति और मुझे घर तक सही - सलामत पहुँचाया।घर जाकर हमारी जो मरम्मत हुई उसका तो हाल ही मत पूछिए लेकिन रामू काका में उस दिन हमने जो देवत्व के दर्शन किए उसके बाद से वो हमेशा के लिए हमारे पूजनीय हो गए।अब हमारी भेंट यदाकदा ही होती है पर उनके प्रति मेरा ये श्रद्धाभाव आजतक कायम है।ऐसे प्यारे लोग अब कहाँ ? ऐसे सामाजिक मूल्य भी न जाने कहाँ गुम हो गए। ये यादें बड़ी खूबसूरत हैं लेकिन वो यादें जिन्हें आज दिल ढूंढता है।अशेष !

©अर्चना आनंद भारती



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