सुहासिनी मन्दिर के चबूतरे पर मगन होकर बैठी थी।मथुरा जैसे छोटे शहर में मन्दिरों की भरमार थी।यूं तो सुहासिनी को मन्दिरों के आडम्बर रास नहीं आते थे पर कृष्ण-राधा के प्रसंगों वाले गीत उसे बहुत प्रिय थे।होली पास थी तो मन्दिरों में ढोलक की थाप के साथ राधा-कृष्ण की होली गाई जाने लगी थी।
ऐसा ही एक प्रसंग था राधा-कृष्ण की होली का, जब राधा बार बार अपनी आंंखों को पानी से धोती जाती हैं।उन्हें यूं परेशान देख उनकी मां पूछती हैं कि क्या अबीर नहीं निकला?राधा उत्तर देती हैं-अबीर तो निकल गया पर अहीर (कृष्ण) नहीं निकला।
यह सुहासिनी का सबसे प्रिय प्रसंग था।ऐसा ही तो कुछ सालों पहले सुहासिनी के साथ हुआ था। कालेज मेंं एमएससी की परीक्षा अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण करने के बाद सुहासिनी ने शोध में दाखिला लिया था।सुहासिनी को उसकी विभागाध्यक्षा ने माधवदास त्रिपाठी जो कि उसी की तरह एक शोधार्थी था,से मिलवाया था।मुखर्जी मैम ने माधव का परिचय देते हुए कहा था कि वह शोध में उसका अच्छा सहायक सिद्ध होगा।
फिर माधव से उसकी मुलाकात रोज का क्रम बन गई थी।गम्भीर स्वभाव का माधव ज़्यादातर शांत रहा करता।चुलबुली अल्हड़ सी सुहासिनी अक्सर उसके गम्भीर व्यक्तित्व का तो कभी उसके बड़े से नाम का मज़ाक उड़ाया करती थी पर माधव धीमे से मुस्करा कर रह जाता।ऐसा नहीं था कि माधव उसके लिए बस मज़ाक का पात्र भर था।लाइब्रेरी में अक्सर पाया जाने वाला माधव उसके कौतूहल का विषय बन गया था।पर इसी कौतूहल ने उसकी रुचि भी किताबों में बढ़ा दी थी।
धीरे धीरे वो माधव को एमडी पुकारने लगी थी और उसका मन माधव के साथ जा जुड़ा था।वह शोध पूरा कर पाती कि तभी उसे पिताजी की मृत्यु का दुखद समाचार मिला था।हृदय गति रूक जाने से उसके पिता अचानक ही चल बसे थे।अब मां और दो छोटे भाई बहनों के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर थी और वह बनारस से मथुरा वापस लौट आई थी।परिस्थितियों के आगे झुकना पड़ा था और एक स्थानीय इंटर कालेज में नौकरी के लिए आवेदन कर दिया था।
पिताजी के बीमे,ग्रेच्युटी आदि के लिए दौड़ भाग करते-करते और भाई बहनों की जरूरतें पूरी करते करते अल्हड़ सी सुहासिनी एक समझदार युवती में बदल गई थी।पर ना जाने क्यों कभी-कभी सुहासिनी को लगता कि अपना दिल तो वो बीएचयू के परिसर में ही छोड़ आई है-माधव,हां माधव के पास!
माधव की जो बातें उसे उस समय अच्छी नहीं लगती थींअब वही याद आतीं।उम्र के इस मोड़ पर सुहासिनी बेहद तन्हा हो गई थी,बेहद अकेली।माधव से संपर्क का कोई ज़रिया न था।भाई-बहन भी पढ़ लिख कर अच्छे पदों पर सुशोभित हो गए थे और घर पर मां के साथ सुहासिनी अकेली रह गई थी।
इसी अकेलेपन से ऊबकर सुहासिनी ने घर पर ट्यूशन लेना शुरू कर दिया था ।पढ़ने आने वाले छात्रों में एक बारहवीं का छात्र केशव भी था।केशव की आँखें,बोलचाल का लहजा न जाने क्यों सुहासिनी को किसी की याद दिलाती सी प्रतीत होतीं।मन न जाने क्यों अतीत में भटकने लगता।सुहासिनी बेचैन हो जाती थी पर चाहकर भी उसे आने से मना नहीं कर पाती।
उस दिन सुहासिनी बाज़ार जा रही थी कि रास्ते में केशव मिला था।'मैम' केशव ने कहा था।सुहासिनी मुस्कुरा कर आगे बढ़ने वाली थी कि तभी केशव ने किसी को दिखाते हुए कहा था,' ये मेरे भैया हैं, माधव'
सुहास ने हैरान होकर नज़रें उठाई थीं,सामने माधव खड़ा था।सालों का फ़ासला क्षणों में सिमट गया हो जैसे।दिल भी कहीं इतनी़ ज़ोर से धड़कता है भला? सुहासिनी अचंभित रह गई थी।'पहचाना नहीं क्या?'माधव ने पूछा था 'मैं याद नहीं?'
'याद तो उसे करते हैं जिसे कभी भूला हो' मन ही मन सुहासिनी ने कहा था पर प्रत्यक्ष में इतना ही कह पाई थी 'माधव'
उसने साथ मेंं एक कॉफ़ी पीने का आग्रह किया था,सुहासिनी इनकार नहीं कर पाई थी। बातों ही बातों में माधव ने बताया था कि उसने अब तक शादी नहीं की है।'क्यों'सुहास ने पूछा था।'कोई मिली ही नहीं' माधव ने फ़ीकी हंसी हंसते हुए कहा था।वह चौंक पड़ी थी।बातें करते करते सुहासिनी ने भी अपना अब तक का जीवन माधव के सामने खोलकर रख दिया था।
शाम धुंंधलाने लगी थी और माधव से विदा ले वह घर लौट आई थी। रात में बिस्तर पर पड़े-पड़े माधव की बातें सोचते सोचते उसे कब नींद आ गई पता ही न चला था।
सुबह अलसायी सी न जाने कब तक पड़ी रहती ,तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।वह खोलने के लिए उठती,तभी मां ने दरवाजा खोल दिया था।
सामने एक वृद्धा खड़ी थी जिसने उसे निहायत ही प्यार से गले लगा लिया था। 'जैसा सुना था बिल्कुल वैसा ही पाया' वृद्धा ने कहा।सुहासिनी कुछ कह पाती कि पीछे से माधव आ खड़ा हुआ था।' तो ये माधव की मां थीं ',सुहासिनी ने सोचा था।माधव की मां ने बताया था कि क्यूं माधव ने अब तक शादी नहीं की और कैसे उसकी सालों की तलाश मथुरा आकर ख़त्म हुई थी।
सुहासिनी की मां अचंभित थीं और सुहासिनी भी! माधव की मां ने विवाह का प्रस्ताव रखा था।मां ने सुहासिनी की आंखों में झांका था और कुछ पूछने की जैसे जरूरत ही नहीं थी।सुहासिनी की झुकी पलकों और चेहरे की लाली ने सब कह दिया था।
हर्ष के अतिरेक को छुपाती हुई सुहासिनी घर के पीछे बने लान में चली आई थी कि तभी दो हाथों ने उसके गालों पर गुलाल मल दिया था।सुहासिनी और माधव के सब रंग इस रंग में मिलकर एकरंग हो गए थे।हां,ये प्यार के वो रंग थे जिन्हें अब कभी छूटना न था।
अशेष!
©अर्चना आनंद भारती
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