कानपुर से लेकर प्रयागराज तक गंगा में बहते हुए शव, शवदाह गृहों में परिजनों के अंतिम संस्कार के लिए कतारबद्ध खड़े लोग, ऑक्सीजन, दवाओं, बेड के लिए छटपटाते, जूझते - मरते लोग...ये कोरोनाकाल के वो वीभत्स दृश्य हैं जो मानवता को शर्मिंदा कर देने के लिए काफी हैं।
दूसरी ओर हैं विशाल जनसमुद्र को आमंत्रित करते कुंभ मेले, भारी जनसभाएँ, लाखों की भीड़ वाली चुनावी रैलियाँ और लकदक खादी पोशाकों में सजे राजनेता... एक पढ़ा - लिखा नागरिक अगर चाहे भी तो इन दोनों दृश्यों में संबंध तलाशे बगैर नहीं रह सकता।
प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी आपदा की घड़ी में चुनाव और कुंभ मेला टाले नहीं जा सकते थे। संभव था कि संक्रमण बहुत हद तक कम होता।
पिछले वर्ष ही आई इस महामारी में हमने मजदूरों का पलायन देखा, राजमार्गों और पटरियों पर मरते लोग देखे और भूल गए, आखिर हमारी याददाश्त इतनी कमजोर जो है।
पर इस वर्ष स्थिति बहुत भयावह है। कोरोना ने एक प्रलंयकारी अदृश्य दैत्य का रूप ले लिया है, लेकिन क्या इस महामारी को, इसके संक्रमण को रोकने में सरकार अपनी भूमिका निभा पाई है?
जवाब है नहीं। हाल ही में ट्विटर पर कराए गए एक सर्वे में जिसमें ब्राजील, भारत, मैक्सिको और अमेरिका ये चार देश शामिल थे, 90% लोगों ने भारत के आपदा प्रबंधन को सबसे खराब करार दिया है। हम इन तथ्यों से नज़रें नहीं फेर सकते कि जब दिल्ली से महाराष्ट्र तक, उत्तर से दक्षिण तक ऑक्सीजन, बेड, दवाईयों के लिए अफरातफरी मची हुई थी, तब सरकार चुनावी रैलियों में व्यस्त थी।
भारत सवा अरब की विशाल जनसंख्या वाला देश है तो जाहिर है कि चुनौतियाँ भी असंख्य होंगी। लेकिन गौरतलब है कि जब पिछले वर्ष ही कोरोना ने भारत में पाँव पसारने शुरू कर दिए तो हमने सालभर में इससे निबटने के लिए पुख़्ता व्यवस्था क्यों नहीं की? क्यों नए अस्पताल, दवाईयों की खेप, ऑक्सीजन संयंत्र नहीं लगवाए? क्या हमें इस क्षति का अंदाजा नहीं था? क्या लोग महज संख्या भर रह गए हैं? क्या हम कहने को विश्व का सबसे बड़ा गणतंत्र हैं?
किसी भी देश का विकास कठिन हालातों से निबटने की उसकी क्षमता के आधार पर तय होता है और बहुत दुखद है कि इस मामले में हम बेहद फिसड्डी साबित हुए हैं और बदले में चार लाख से भी अधिक जानों की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है।
इस संदर्भ में महाराष्ट्र के एक पिछड़े जिले नंदुरबार के जिलाधिकारी डॉक्टर राजेंद्र भरुद की दूरदर्शिता और आपदा प्रबंधन को देखिए जो कि अनुकरणीय है।डॉक्टर भरुद ने पिछले साल सितंबर से ही कोरोना की दूसरी लहर के मद्देनजर तैयारियाँ शुरू कर दी थीं।उन्होंने जिले में 48 से 50 लाख लीटर क्षमता वाले पाँच ऑक्सीजन संयंत्र लगवाए और कई अस्थायी अस्पताल बनवाए, नतीजतन महाराष्ट्र जब महामारी की सबसे बुरी लहर से प्रभावित था तब भी उनके जिले में मृत्यु दर सबसे कम रही। क्या ये दूरदर्शिता हमारी केन्द्रीय शक्तियाँ नहीं दिखा सकती थीं?
वैक्सीन की अनुपलब्धता सिस्टम की असफलता का एक और उदाहरण है।अब भी समय है जब सरकारों को सत्ता और शासन से हटकर देशहित की सोचनी चाहिए वरना महाविनाश होगा और खलनायक साबित होंगे देश की सरकार और सिस्टम। हम केवल डॉक्टरों के सिर पर इस असफलता का ठीकरा नहीं फोड़ सकते। सब इस असफलता में बराबर के भागीदार हैं।उल्टा डॉक्टरों ने तो इस त्रासदकाल में अपनी भूमिका योद्धाओं की तरह निभाई है।
एक देशभक्त नागरिक के तौर पर भारत मुझे जान से भी प्यारा है। लेकिन यह कहते हुए मैं बेहद शर्मिंदा हूँ कि चिकित्सा के लिहाज से मुझे अपने जीवनकाल में शायद पहली बार अपने देश में असुरक्षित महसूस हो रहा है। अशेष,
©अर्चना आनंद भारती
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