यात्रा - तुलसी वहाँ न जाईए

संत तुलसीदास जी ने कहा है कि "आवत ते हरखे नहीं, नैनन नहीं सनेह तुलसी वहाँ न जाईए, कंचन बरसे नेह" इन पंक्तियों का निहितार्थ जानने के लिए पढ़ें ये रचना और स्वयं तय करें 😊

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ARCHANA ANAND
ARCHANA ANAND 23 Jul, 2021 | 1 min read
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सामने मेज पर भोजन लगा था लेकिन वो बेटे का इंतज़ार कर रहे थे।

"आप खा लें बाबूजी, इन्हें शायद रात हो जाए।" बहू ने कहा।

'हम्म', वो चुपचाप मेज पर बैठ गए।फीका सा, अधपका सा खाना, उन्हें बड़ी बहू के हाथ का संतुलित और पौष्टिक भोजन याद आ गया।चुपचाप दो रोटियाँ किसी तरह उदरस्थ कर वो उठ खड़े हुए।

तभी दरवाजे पर दस्तक हुई, अफसर बेटा सामने खड़ा था।बाबूजी की तरसती आँखें अचानक ही नम हो आई थीं।बेटे के चेहरे पर अफसर होने का गुरूत्व बरकरार था।पाँव छूने को झुके पुत्र को बढ़कर गले लगा लिया उन्होंने।अपनेपन के चिह्न ढूंढता हृदय जैसे इस स्पर्श को अपने अंदर समेट लेना चाहता था।

हल्की फुल्की बातें कर शंभु बाबूजी को उनके कमरे में पहुंचा आया।नरम, दो इंच धंसता गद्देदार बिस्तर... बाबूजी चुपचाप वहाँ आ लेटे।लेकिन बूढ़ी हड्डियाँ जैसे दर्द से टूटने पर आमादा थीं।आँखों में फिर बड़े बेटे का चेहरा उभर आया था, कैसे रोज पैरों में बिना मालिश किए सोने नहीं देता था।

बाबूजी सुबह जल्दी उठने के आदी थे, बेटे - बहू देर तक सोए रहते।तो पराठे और नर्म रोटियाँ कौन बनाता।शक्रदुर्लभ सा सैंडविच और उबली सब्जियाँ परोस दिए जाते। बेटा आबकारी विभाग में बड़ा अफसर था, उसे फुर्सत नहीं थी कि दो घड़ी बाबूजी के पास आकर बैठे।सुबह सुबह टहलने के आदी बाबूजी इस अत्याधुनिक सोसाइटी में जब टहलने निकलते तो धोती - कुरता पहने इस वृद्ध को सब किसी दूसरे ग्रह के प्राणी की तरह देखते।

आए दिन बहू किट्टी पार्टियों और क्लबों में जाती और बाबूजी चुपचाप अपने कमरे में सिमट जाते। बहू को खाना बनाने में कोई रूचि नहीं थी तो खाना या तो महरी बनाकर रख जाती या बाहर से आर्डर कर दिया जाता। बाबूजी को इस उम्र में बदपरहेजी रास नहीं आती थी लेकिन मन मसोसकर रह जाते।

कुछ दिन तो फिर भी सब ठीक रहा लेकिन उस दिन काँसे के गिलास में मलाईदार चाय पीने के आदी बाबूजी के हाथ से महंगा बोन चाईना का कप क्या छूटा, मानो घर में भूचाल ही आ गया।

"तुम्हें कहा था कि बाबूजी को स्टील के गिलास में चाय दो, लेकिन तुम समझो तब ना, गँवई औरत" बहूरानी ने महरी को डाँट लगाई थी लेकिन वो अनुभवी वृद्ध समझ गया कि गँवई शब्द किसे इंगित करके कहा गया है।बाबूजी के आत्मसम्मान को आघात सा लगा था।जिस अपनत्व की चाह में वो इतनी दूर खिंचे चले आए थे, यहाँ उसका कोई निशान भी मौजूद नहीं था।

उस दिन बाबूजी ने देखा था कि उनके साथ सोसाइटी में टहलते हुए शंभु कितना झेंपा - झेंपा सा था लेकिन उन्होंने तब गौर नहीं किया था।आज उन्हें ऐसी बहुत सी बातें अचानक ही याद हो आईं।आखिर उन्होंने तय कर लिया कि अब घर लौट जाना है।

शंभु को कहकर टिकट बनवाया और ट्रेन पर आकर बैठ गए।स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही आतुरता से उनकी प्रतीक्षा करता रघु उन्हें देखते ही भागा आया था।रघु ने देखा इस एक महीने में ही बाबूजी कितने दुर्बल से हो गए हैं।उन्हें सहारा देकर घर ले आया रघु।बाबूजी को उनके कमरे में लिटाकर आदतन पैरों के पास जा बैठा था रघु।

"वहाँ नहीं, यहाँ बैठो मेरे पास" बाबूजी ने रघु से अनुनय भरे स्वर में कहा।रघु चौंक उठा था।जाने कितने सालों बाद उसने पिता की ऐसी स्नेह भरी आवाज सुनी थी।वह चुपचाप उनके निकट सिमट आया था।बड़ी बहू और पोते - पोती भी कब उस कमरे में आ गए थे।

बाबूजी ने रघु के सिर पर स्नेह से हाथ फेरकर कहा था "मुझे माफ कर दे बेटा, मैंने अनजाने में तेरे साथ बड़ा अपराध किया है।"

रघु भीग गया था,"ऐसा न कहें बाबूजी, आप नहीं जानते, आपके बगैर घर जैसे काटने को दौड़ता था।"

"जानता हूँ रे, पर बड़ी देर कर दी मैंने जानने में" कहते हुए बाबूजी ने संतोष से एक बार 'अपने' परिवार को देखा और एक लंबी हिचकी ली।हाँ, यात्राप्रिय बाबूजी अपनी अंतिम यात्रा पर निकल चुके थे, पीछे रोते बिलखते परिजनों को छोड़कर!


समाप्त

©अर्चना आनंद भारती


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ARCHANA ANAND

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Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Sonnu Lamba · 3 years ago last edited 3 years ago

    बहुत ही मार्मिक है ये सब

  • ARCHANA ANAND · 3 years ago last edited 3 years ago

    धन्यवाद प्रिय सखी ❤

  • Avanti Srivastav · 3 years ago last edited 3 years ago

    Very touching

  • ARCHANA ANAND · 3 years ago last edited 3 years ago

    धन्यवाद दोस्त ❤

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