गुलज़ार ज़रा मुझसे कह दो
गुलज़ार ज़रा मुझसे कह दो,ये नगमें जो तुम गढ़ते हो।
किन आँखों से मन की भाषा,इतने विस्तार से पढ़ते हो?
कुछ जागी रातों के किस्से, कुछ आँसू भरी शामल शामें
कुछ दर्द छुपे अनजाने से,जो रहते हमसब हैं थामे
किस तरह भला इन शब्दों को,इतने आराम से कहते हो?
है स्याही भी, है कलम भी,है कागज़ भी,पर शब्द नहीं
हर शब्द कहीं खो जाता है, हम रह जाते नि:शब्द कहीं
केवल स्याही ही होती है, या आँसू से भी गढ़ते हो?
ये शब्द तुम्हारे रहते हैं कितना अनुभव विस्तार लिए
उन अनकथ,कोमल भावों का, कितना अनंत संसार लिए
जब हो जाता है मौन मुखर,उस सन्नाटे को पढ़ते हो?
गर किसी रोज हम मिल पाएँ,तो तेरी कलम चुराऊँ मैं
कुछ अपनी बातें कह-सुनकर,आराम से फिर सो जाऊँ मैं!
मौलिक एवंं सर्वाधिकार सुरक्षित
©अर्चना आनंद भारती
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Bahut khub👌👌
बहुत धन्यवाद मैम
Khoobasoorat
धन्यवाद मैम
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