"बेटा!! वंशबेल को बढ़ाने के लोभ में बेटे की मन्नतें
मांगती रही। भूल बैठी थी, ज़िंदगी के आखिरी पलों में साथ तो बहू ही देगी। मेरी सास ने मुझे बेटी समझा पर मैं उन्हें मां ना समझ पाई। ये मेरे ही बोए बीजों की फसल है जो मेरा बेटा आज मुझे अकेला छोड़कर चला गया"- मिथिला जी ने रोशनी को कहा।
रोशनी को ब्याहकर आए हुए 2 साल ही तो हुए थे कि मिथिला जी के शब्दों के खंजरों ने उसे भीतर तक भेद दिया था।
रोशनी का रिश्ता लेने उसकी दादी सास राधा जी उनके घर गई थी। रोशनी को उन्ही ने पसंद किया और रिश्ता हो गया।
राधा जी चाहती थी कि पोते की बहू किसी साधारण परिवार से ही आए, ताकि जो ज़िन्दगी के चंद साल बचे हैं वो शांति से गुजार पाएं।
किसी हॉस्पिटल में सिर्फ एक केस बनकर खत्म हो जाना उन्हें बहुत डराता था।
अपने बेटे को डॉक्टर की पढ़ाई करवाने वाली राधा जी पूरे खानदान के लिए एक मिसाल थीं। इसलिए बेटे के लिए साहूकार घर की बेटी लाना उन्होंने जरूरी समझा।
बेटी तो साहूकार घर से ले आईं। पर एक अमीर बहू गरीब सास को कितना ही अपना पाती!!
इसलिए बहू की तरफ से हमेशा राधा जी को निराशा ही हाथ लगी।
उम्र के आखिरी साल थोड़ा खुशी से बीत जाएं इसलिए पोते की बहू उन्होंने खुद पसंद की और पोता दादी का लाडला होने के नाते उन्हें मना ना कर पाया।
रोशनी के गृह प्रवेश के वक्त ही मिथिला जी ने कड़वे शब्दों से बहू को मुंह दिखाई का तोहफा दिया -" ये साड़ी पहनकर बैठना, तुम्हारे घर के कपड़े रिश्तेदारों के सामने ना पहनना।"
हाय रे मेरी किस्मत!! एक ही बेटा उसकी ही बहू मेरी पसंद की नहीं आईं।
रोशनी को वो स्वागत किसी अपमान से कम नहीं लगा।
इतने में राधा जी अपने एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में एक गहने का बक्सा ले, अपने पोते हर्ष का सहारा लेते हुए, रोशनी के पास आईं।
राधा जी -"लो बेटा!! तुम्हारी गरीब दादी सास की तरफ से छोटा सा तोहफा। इसे तुम अपने घर के कपड़ों के साथ ही पहनना। तुम्हारी अमीर सासूमां अपने महंगे कपड़ों के साथ पहनने के लिए महंगे गहने देगी अपनी बहू को!!"
दादी की बात सुनकर मौजूद सभी लोगों ने होठों को दबाकर ही हंसना मुनासिब समझा।
मिथिला जी को लगा अब तो इतने लोगों के सामने किरकिरी हो जाएगी इसलिए बहू को एक गहनों से भरा डिब्बा भी से दिया।
दादी - पोता एक दूसरे की आंखों में देख खूब मुस्कुराए।
मिथिला जी को लगा बहू तो हाथ से गई और सास भी अब तो सहारे वाली हो गई, मुझे कौन पूछेगा अब!!
दिन भर इसी उधेड़ बुन में रहती की कैसे बहू और सास को अलग अलग रखा जाए।
एक दिन राधा जी की तबीयत बिगड़ी, उन्होंने पानी के लिए रोशनी को आवाज़ दी।
रोशनी दादी के कमरे की तरफ बढ़ी ही थी कि मिथिला जी ने उसे आंखों से धमकाते हुए रसोई में जाने का इशारा किया।
रोशनी रसोई में चली गई।
मिथिला जी दादी के कमरे में गई। पानी देने की बजाय उन्हें खूब भली बुरी सुनाई।
राधा जी रो रही थी -" बहू!! ऐसा पाप ना कर!! तेरा बुढ़ापा मेरे बुढ़ापे की तरह वीरान ना हो इसलिए इतनी साधारण घर की बेटी को ब्याहकर लाई हूं।
तू पैसे की चकाचौंध में भूल गई है शायद " जैसी फसल बोएगी, वैसे ही काटनी भी पड़ेगी!!"
दादी मां की रोने की आवाज़ सुनकर रोशनी खुद को रोक नहीं पाई और अंदर आकर दादी मां को पानी पिलाया।
दादी मां -" बेटा!! तू खूब फले फूले। बस ऐसी ही रहना। पति की कमाई का जरा भी घमंड ना करना!! मेरा क्या भरोसा आज हूं कल नहीं। निभाना तो अपनी सास से ही है। "
रोशनी रोते हुए -" दादी मां!! आपको कुछ नहीं होगा!!"
मिथिला जी -"तुझे रसोई का काम करने को कहा था बहू!! इतनी भी तहजीब नहीं की किसी की बातें नहीं सुनते!!"
रोशनी -" मां जी!! बातें सुनकर नहीं आई मैं। रोने की आवाज़ सुनकर आईं हूं। तहजीब भी है और इंसानियत भी।"
मिथिला अपनी सास की तरफ देखते हुए -" बहुत खुशी हो रहीं होगी आपको तो!! ऐसी बदतमीज बहू मेरे सिर मढ़ कर। यही तो चाहती थीं आप कि आपकी तरह मैं भी कमरे में घुटती रहूं।
पर मेरे पति ने इतना इंतजाम किया हुआ है कि बेटा बहू ना भी करेंगे तो नौकरों के सहारे बुढ़ापा; खूब बढ़िया गुजारेंगे।"
राधा जी -" नौकरों के सहारे ही मैं जी रही थी अब तक बहू!! तेरे साथ ऐसा ना हो , अब भी तुझे यही आशीर्वाद दूंगी।"
रात के खाने के बाद सब सो गए तो रोशनी और हर्ष दादी मां के कमरे में गए। रोशनी ने दिन में हुई बातों की जिक्र हर्ष से किया वो खुद को दादी मां के पास जाने से नहीं रोक पाया।
वहां जाकर देखा तो दादी का शरीर ठंडा पड़ चुका था।
वो जल्दी से हॉस्पिटल पहुंचे तो पता चला दादी मां अब नहीं रहीं ।
हर्ष खुद को गुनेहगार समझता रहा!!
रोशनी भी रोती रही कि क्यूं दादी मां को अकेला छोड़ा आज!!
दादी मां के आखिरी दर्शन किए, दादी के चेहरे पर सुकून सी मुस्कान थी जिसे देखकर मिथिला जी के दिल में अजीब सा डर बैठ गया।
दादी की तेरहवीं होने के वक्त तक हर्ष ने ना मां से बात की ना उनकी बात सुनी।
मिथिला जी खुद को बेबस महसूस कर रही थी, पहले तो अपनी झुंझलाहट सास को बुरी भली कहकर निकाल लेती थी।
अब रोशनी को बिना वजह उसके घर,परिवार के ताने देने लगी।
अब हर्ष से बर्दाश्त ना हुआ और उसने फैसला कर लिया कि वो अपने अलग घर में रहेगा।
मिथिला जी -" जाओ!! एक गज जमीन भी नहीं दूंगी तुम्हें। पहले तो बस दादी कि सुनकर मां की अहमियत नहीं समझी। अब बीवी की बातों में आकर मां को छोड़कर जा रहा है।"
हर्ष -" मां!! तुम बेवजह दादी मां को कोस रही हो। अब तो उन्हें बख्श दो!!"
मिथिला जी -" देख लिया!! इस लड़की में तो कोई तहजीब थी ही नहीं । तू भी मां से बात करने की तहज़ीब भूल गया!! "
रौशनी -" मां जी!! तहजीब रिश्तों को निभाने के काम आती है। जब रिश्ते सिर्फ नाम के हों तो तहजीब खुद ही अपना रास्ता बदल देती है।
याद है ना आपको दादी मां से किस तहज़ीब में बात करती थीं आप!!"
मिथिला -" ये सारी आग तुम्हारी दादी मां की ही लगाई हुई है!! तुम्हें आए हुए दिन ही कितने हुए हैं!! जो दादी ने ज़हर भरा वो ही उगल रही हो!!"
हर्ष -" मां!! रोशनी को आए हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ!! पर मैं तो बचपन से आपको इसी तहज़ीब में बातें करता हुए देख रहा हूं।
दादी तो हमेशा आपकी मर्जी से सब करती रहीं फिर भी!!
अब मुझे नहीं रहना यहां!!
ये मेरी तहज़ीब का हिस्सा है कि मेरी पत्नी का आत्मसम्मान मेरा भी आत्मसम्मान है!"
मिथिला -" हां जाओ ना!! दो दिन में पता चल जाएगा।"
रोशनी और हर्ष चले गए।
मिथिला जी अपने घर में बस दीवारों के कोने और सिल्क के पर्दों के बीच अकेली रह गई। अपनी झुंझलाहट को कम करने के लिए हर तीसरे दिन किसी मुलाजिम को काम से हटा देती।
उन्हें सन्नाटे में अपनी सास के आखिरी शब्द सुनाई देने लगे थे -" जो फसल बोई है, वो काटनी भी पड़ेगी!! "
मिथिला जी अपने कानों को हाथो से दबाकर बगीचे की तरह भागी, अचानक उनका पैर फिसला और गिर पड़ी।
मुलाजिम ही हॉस्पिटल लेकर गए, हर्ष को फोन किया गया।
हर्ष ने जाने से मना कर दिया पर रोशनी ने उसे मनाया -" दादी मां!! यही चाहती थी कि जैसा उनके साथ हुआ वैसा आपकी मां जी के साथ ना हो!! इसलिए चलिए!!"
हर्ष दादी मां की दी हुई सीख और संस्कारों के आगे मजबूर होकर चला ही गया होस्पिटल!!
हर्ष और रोशनी को देखकर मिथिला जी खूब रोई।
उनसे हाथ जोड़कर माफी मांगने लगी !!
बेटे से प्रार्थना की -" मुझे माफ़ कर दे!! दादी मां के लिए गायत्री पाठ रखवा!! शायद मेरे गुनाह माफ़ हो जाएं!"
हर्ष -" मां!! अब कोई फायदा नहीं!! उन्होंने कभी आपका बुरा नहीं चाहा। आप ही पैसे के सामने सारी इंसानियत , तहजीब सब भूल बैठी थी।"
मिथिला जी -" हां बेटा!! ये उनकी सिखाई तहज़ीब और संस्कार ही है जो आज तुम मुझे देखने आए।
रोशनी बेटा!! घर आ जाओ!! तुम्हारे बिना वो बस एक मकान है!!
तुम्हें दादी मां की कसम मना ना करना!"
रोशनी और हर्ष ने मां की बात मान ली।
घर आते ही मिथिला जी ने सासूमां की तस्वीर के सामने माफी मांगी, नई फूलमाला चढ़ाई।
बेटे और बहू को कहा -" मैं अच्छी बहू तो नहीं बन पाई, पर अपनी सास जैसी सास जरूर बनूंगी!!
राधा जी तस्वीर से ही अपनी प्यार की फसल को देख मुस्कुरा रहीं थीं!!
दोस्तों !! तहज़ीब सीखने सिखाने की चीज़ नहीं। ये तो वहां मौजूद होती है जहां रिश्तों में अपनापन, इंसानियत, एक दूसरे का सम्मान हो।
ये इतनी महंगी चीज़ है कि पैसे वाला जबरदस्ती खरीद नहीं सकता और इतनी सस्ती है कि हर नुक्कड़, गली में रहने वालों के पास मिल जाती है।
इसका लेनदेन होता है , जैसी की जैसी फसल बोना वैसी ही काटना।
ठीक ऐसे ही तहज़ीब से बोलो, और तहज़ीब ही पाओ।
मेरे अन्य ब्लॉग भी जरूर पढ़ें।
धन्यवाद।
आपकी स्नेह प्रार्थी
अनीता भारद्वाज
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