" औरत की कमाई से घर में बरकत नहीं होती, ये सब जुमले बस औरत को बहलाने के लिए थे। जिसे पत्थर की लकीर मानकर हम घर बैठे रहे बेटा, पर तुम मत आना इन बातों में ; मै तुम्हारे साथ हूं"- कीर्ति की दादी मां ने कहा।
कीर्ति जैसे "पत्थर की लकीर" हो ऐसा मानती थी, दादी कि बातों को ।
दादी मां अपने सपनों को कीर्ति में ही जीना चाहती थी। अपनी बेटियों को पढ़ाने की खूब कोशिश की थी दादी मां ने, पर गांव का विद्यालय 12 वीं तक का ही था, और शहर तक भेजने का कोई साधन नहीं था।
फिर भी दादी मां ने खूब कोशिश की कि सिलाई कढ़ाई सीख जाएं तो बुरे वक़्त में काम आयेगी। 2 पैसे खुद के कमाएंगी तो आत्मसम्मान के साथ जी पाएंगी।
वरना सारी उम्र बाकी औरतों की तरह सुनती रहेंगी -" आदमी के बिना तुम हो ही क्या?"
जब लड़कियों कि शादी की बात अाई तो दादा जी ने बोला -" क्यूं लड़कियों को घर घर घुमाती हो सिलाई सिखाने।
इन्होंने कौनसी कमाई करनी है। घर तो आदमी की कमाई से ही बसते हैं।"
तब तो दादी मां कुछ ना कर पाई। बस मन मारकर रह गई की मेरी अगली पीढ़ी भी रह गई पीछे, इन आदमियों की बातों में आकर।
कीर्ति पढ़ाई में बहुत तेज थी , तो दादी मां की बरसो पहले मर चुकी उम्मीदें, फिर से पंख पसारने लगी।
दादी मां ने खूब समझाया लाडली को।
तब तक कॉलेज भी बन चुका था तो , कीर्ति कॉलेज गई।
एक दिन एक सहेली अाई अपनी शादी का कार्ड देने ।
कीर्ति की दादी ने बोला -" पहले पढ़ लिख के नौकरी लग जाती, अभी उम्र ही क्या है तेरी?"
उसने कहा -" अरे दादी!! अच्छा रिश्ता ढूंढा है पापा ने, पति कमाएगा मुझे क्या जरूरत है।!"
दादी ने सोचा कहीं पोती के मन में कोई वहम ना डाल जाए ये, तो तपाक से दादी बोली -" बेटा !! फिर तो तू खाना भी नहीं खाएगी, पति ही खा लेगा। सोएगी भी नहीं, पति ही सो लेगा!"
दादी की बात कीर्ति तो समझ गई , पर उसकी सहेली ने मजाक समझकर भुला दिया।
आखिर कीर्ति की दादी की उम्मीद के पंखों को उड़ान मिल ही गई, जब कीर्ति की नौकरी लगी।
दादी ने पोती की खूब नजरें उतारी। दादी की खुशी बिल्कुल वैसी थी जैसे रोते हुए बच्चे को मां गोद में उठाती है, तब बच्चे को होती है ऐसी।
दादी -" बेटा!! मेरी मेहनत आज सफल हो ही गई। "
कीर्ति -" दादी!! क्या सिर्फ पैसा कमाना ही औरत की कमाई होती है क्या?
कभी लोग बोलते हैं कि औरत की कमाई में बरकत नहीं होती ।
कभी बोलते हैं है हमारे बच्चे ही हमारी कमाई हैं!!
बच्चे को जन्म देना, पालना, फिर बच्चे के बच्चों तक को पालना ये सब काम तो औरत ही करती है। तो फिर इसे औरत की कमाई क्यू नहीं कहा जाता?"
कीर्ति की बातें सुनकर जैसे दादी को धक्का सा लगा।
दादी तो अब तक यही सोचे बैठी थी कि आदमी औरत की कमाई से डरते है, इसलिए बरकत का बहाना बनाते है।
पर आदमी तो औरत की उम्र भर की तपस्या, कमाई तक तो अपने नाम कर लेते हैं , ये तो दादी ने कभी सोचा ही नहीं!!
अगर बच्चे लायक हो तो आदमी उसे खुद की ज़िन्दगी भर की पूंजी बता देते है, और बच्चे कोई गलती कर दे तो उसे औरत का अपराध बना देते हैं।
सही मायने में औरत की कमाई है क्या???
सारी उमर चूल्हा चौका करना, बच्चे पालना, घर चलाना ये सब बिना कमाई वाले काम, जिनमें उलझ कर हर औरत अपनी कमाई के बारे में बात करना ही भूल गई।
पर दादी को खुशी थी कि अब उसकी पोती इस फेर में नहीं पड़ेगी।
उसके हाथ शिक्षा की वो तलवार है जो हर उस अमरबेल रूपी बंधन को नष्ट कर देगी, जिसने औरत की कमाई को कैद किया हुआ है।
अब वो अपनी बिना मेहताना मिलने वाली कमाई को भी जान पाएगी और मेहनताना वाली कमाई को भी।
दादी मां को तो जैसे जादू की छड़ी मिल गई हो।
अब तो गांव की हर लड़की को पढ़ने लिखने, हाथ के हुनर सीखने की शिक्षा दादी खूब देती है-
गली मोहल्ले की औरतों को भी बताती है, ये जो तुम घर में काम करती हो ; ये कमाई है तुम्हारी ,जिसका मेहनताना तुम्हारे आदमी ले रहे हैं।
तुम्हारे कमाई से ही बरकत हैं इस जहां में।
कहानी को दूसरों के साथ सांझा जरुर करें।
आपकी स्नेह प्रार्थी
अनीता भारद्वाज
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.