शीर्षक -मेरे प्रिय आत्मन

एक विचार ।

Originally published in hi
Reactions 0
705
Akhilesh  Upadhyay
Akhilesh Upadhyay 21 Sep, 2020 | 1 min read
#paperwiff


          भावार्थ - एक कथित चित्रण ।

एक छोटी से कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। बहुत वर्ष बीते, बहुत सदियां बीत गई ; किसी देश में एक बड़ा चित्रकार था।

 जब वह अपनी युवा - अवस्था में था, उसने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं जिसमें भगवान का दिव्य आंनद स्वरुप झलकता हो। मैं एक ऐसे व्यक्ति को खोजूं; एक ऐसे मनुष्य को जिसका चित्र जीवन के उस पार हो जगत के जो दूर हो उसकी खबर लाता हो।

 उसने अपने इस मुहिम की शुरुआत की , जंगल-जंगल छाना उस आदमी को, जिसकी प्रति छवि वह बना सके और आखिरकार उसने पहाड़ पर गाय चराने वाले एक चरवाहे को खोज ही लिया।


 उसकी आंखों में कुछ ललक थी जो उसकी झलक को निहारने में मुझे मजबूर कर रही थी। उसके चेहरे की रूप रेखा में कोई दूर की खबर थी। उसे देखकर ही लगता था कि मनुष्य के भीतर परमात्मा भी है। उसने उसके चित्र को बनाया। उस चित्र की लाखों प्रतियां गांव-गांव दूर-दूर के देशों में बिकी, लोगों ने उस चित्र को घर में टाँग कर अपने घर को धन्य समझा।

फिर बीस साल बाद वह चित्रकार बूढा हो गया। तब उसे ख्याल आया कि ऐसा चित्र तो मैंने बनाया जिस में परमात्मा की झलक आती थी, जिसकी आंखों में किसी और लोक की झलक मिलती थी। जीवन के अनुभव से उसे पता चला था कि आदमी में भगवान ही अगर अकेला होता तो ठीक का, आदमी में शैतान भी दिखायी पड़ता है उसने सोचा कि मैं एक और चित्र बनाऊंगा,जिसमें आदमी के भीतर शैतान की छवि होगी। तब मेरे दोनों चित्र पूरे मनुष्य के चित्र बन सकेंगे।


वह चित्रकार फिर गया अपनी इस कोशिश को अंजाम तक लाने के लिए । उसने घरों में, शराब खानों में, पागल खानों में, और उसने खोजबीन की उस आदमी की जो आदमी न हो; शैतान हो। जिसकी आंखों में नकार की लपटें जलती हो। 

जिसके चेहरे की आकृति उस सबका स्मरण दिलाती हो। जो अशुभ है, कुरूप है, असुन्दर है। अर्थात इस बार वह पाप की प्रतिमा की खोज में निकला था।


 एक प्रतिमा उसने परमात्मा की बनायी थी। वह एक प्रतिमा पाप की बनाना चाहता है।

और बहुत खोज के बाद एक कारागृह में उसे ऐसा कैदी मिल ही गया जी सात हत्यभियुक्तों में लिप्त था, और जो थोड़े ही दिनों के बाद मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था, क्यूकी उसे फांसी पर लटकाया जाने वाला था। उस आदमी की आंखों में नरक के दर्शन होते थे। घृणा जैसे साक्षात थी। उस आदमी के चेहरे की रूपरेखा ऐसी थी कि वैसा कुरूप मनुष्य खोजना मुश्किल था। उसने उसके चित्र को बनाया। 

जिस दिन उसका चित्र बनकर पूरा हुआ, वह अपने पहले चित्र को भी लेकर कारागृह में आ गया।

 दोनों चित्रों को पास-पास रख कर देखने लगा। चित्र कार खुद ही मुग्ध हो गया था कि कौन सी कलाकृति श्रेष्ठ है। कला की दृष्टि से यह तय करना मुश्किल था।

और तभी उस चित्रकार को पीछे किसी के रोने की आवाज सुनायी पड़ी, तो वह कैदी ज़ंजीरों में बंधा रो रहा था।

 जिसकी उसने तस्वीर बनायी थी।

 वह चित्रकार हैरान हुआ। उसने कहां मेरे दोस्त तुम क्यों रोते हो; चित्रों को देख कर तुम्हें क्या तकलीफ हुई।

उस आदमी ने कहा, मैंने इतने दिन तक छिपाने की कोशिश की लेकिन आज मैं हार गया। 

शायद तुम्हें पता नहीं कि पहली तस्वीर भी तुमने मेरी ही बनाई थी।

 ये दोनों चित्र मेरे ही है। 

बीस साल पहले पहाड़ पर जो आदमी तुम्हें मिला था वह मैं ही था। 

और मैं इस लिए रोता हूं,कि मैंने बीस साल में कौन सी यात्रा कर ली—स्वर्ग से नरक की, परमात्मा से पाप की।


पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है। सच हो या न हो, लेकिन हर आदमी के जीवन में दो तस्वीरें है। हर आदमी के भीतर शैतान है, और परमात्मा है।

 हर आदमी के भीतर नरक की भी संभावना है और स्वर्ग की भी। हर आदमी के भीतर सौंदर्य के फूल भी खिल भी खिल सकते है और कुरूपता के गंदे डबरा भी बन सकते है। 

प्रत्येक आदमी इन दो यात्राओं के बीच निरंतर डोल रहा है। ये दो छोर है, जिनमे से आदमी किसी को भी छू सकता है। और अधिक लोग नरक के छोर को छू लेते है। 


बहुत कम ही सौभाग्यशाली है, जो अपने भीतर परमात्मा को उभार पाते है।

क्या हम अपने भीतर परमात्मा को उभार पाने में सफल हो सकते है?


 क्या हम भी वह प्रतिमा बन सकेंगे जहां परमात्मा की झलक मिले?

यह कैसे हो सकता है—इस प्रश्न के साथ ही आज की दूसरी चर्चा मैं शुरू करना चाहता हूं। 

यह कैसे हो सकता है कि आदमी परमात्मा की प्रतिमा बने? 

यह कैसे हो सकता है कि आदमी का जीवन एक स्वर्ग बने?

—एक सुलभ, एक सुगंध, एक सौन्दर्य? यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य उसे जान ले, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है?

 यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य परमात्मा के मुदिर में प्रविष्ट हो जाये?


होता तो उलटा है। बचपन में हम कहीं स्वर्ग में होते है। और बूढे होते-होते नरक तक पहुंच जाते है। 

होता उल्टा है- होता यह है कि बचपन के बाद हमारा रोज पतन होता है। बचपन में किसी इनोसेंस, किसी निर्दोष संसार का हम अनुभव करते है। और फिर धीरे-धीरे एक कपट से भर हुआ पाखंड से भरा हुआ मार्ग हम तय करते है। और बूढा होते-होते ने केवल हम शरीर से बूढे हो जोत है, बल्कि हम आत्मा से भी बूढ़े हाँ जाते है। न केवल शरीर दीन-हीन, जीर्ण-जर्जर हो जाता है, बल्कि आत्मा भी प्रतीत, जीर्ण-जर्जर हो जाती है। और इसे ही हम जीवन मान लेते है। और समाप्त हो जाते है।

धर्म इस संबंध में संदेह उठाना चाहता है। धर्म एक बड़ा संदेह है इस संबंध में कि यह आदमी के जीवन की यात्रा गलत है कि स्वर्ग से हम नरक तक पहुंच जाये। होना तो उल्टा चाहिए। जीवन की यात्रा उपलब्धियों की यात्रा भी होनी चाहिए : कि हम दुःख से आनंद तक पहुँचें।

 हम अंधकार से प्रकाश तक पहुंचे।

 हम मृत्यु से अमृत तक पहुंच जायें।

 प्राणों के प्राण की अभिलाषा और प्यास भी वहीं है। 

प्राणों मे एक ही आकांक्षा है कि मृत्यु से अमृत तक कैसे पहुँचें।

 प्राणों में एक ही प्यास है कि हम अंधकार से आलोक को कैसे उपलब्ध हों।

 प्राणों की एक ही मांग है कि हम असत्य से सत्य तक कैसे जा सकते है।

निश्चित ही सत्य की यात्रा के लिए, निश्चित ही स्वयं के भीतर परमात्मा की खोज के लिए, व्यक्ति को ऊर्जा का एक संग्रह चाहिए; कन्जर्वेशन चाहिए।

 व्यक्ति को शक्ति का एक संवर्धन चाहिए। उसके भीतर शक्ति इक्कठी हो कि वह शक्ति का एक स्त्रोत बन जाये, तभी व्यक्ति को स्वर्ग तक ले जाया जा सकता है।

स्वर्ग निर्बलों के लिए नहीं है। जीवन के सत्य उनके लिए नहीं है। जो दीन-हीन हो गये है।

 शक्ति को खोकर जो जीवन की सारी उपलब्धियों को खो देते है। और भीतर ही भीतर दुर्बल और दीन हो जाते है। 

वे यात्रा नहीं कर सकते। उस यात्रा पर चढ़ने के लिए उन पहाड़ों पर चढ़ने के लिए शक्ति चाहिए।

और शक्ति का संवर्धन धर्म का सूत्र है—शक्ति का संवर्धन, "कंजरवेशन ऑफ एनर्जी"।

 कैसे शक्ति इकट्ठी हो कि हम शक्ति के उबलते हुए भण्डार हो जायें?

लेकिन हम तो दीन-हीन जन है। सारी शक्ति खोकर हम धीरे-धीरे निर्बल होते चले जाते है। सब खो जाता है भीतर रिक्ति रह जाती है। 

खाली खालीपन के अतिरिक्तत और कुछ भी नहीं छूटता है।

हम शक्ति को कैसे खो देते है?

मनुष्य का शक्ति को खोने का सबसे बड़ा द्वार काम है । काम मनुष्य की शक्ति के खोने का सबसे बड़ा द्वार है। जहां से वह शक्ति को खोता है।

और जैसा मैंने समझा है , कोई कारण है जिसकी वजह से वह शक्ति को खोता है। शक्ति को कोई भी खोना नहीं चाहता है। कौन शक्ति को खोना चाहता है? 


 लेकिन कुछ झलक है उपलब्धि की उस झलक के लिए आदमी शक्ति को खोने को राज़ी हो जाता है। 

काम के क्षणों में कुछ अनुभव है, उस अनुभव के लिए आदमी सब कुछ खोने को तैयार है। अगर वह अनुभव किसी और मार्ग से उपलब्ध हो सके तो मनुष्य काम के माध्यम से शक्ति को खोने को कभी तैयार नहीं होगा।

क्या और कोई द्वार है ; उस अनुभव को पाने का? 

क्या और कोई मार्ग है उस अनुभव को उपलब्ध करने का—जहां हम अपने प्राणों की गहरी-से गहराई में उतर सके। 

जहां हम जीवन की ऊर्जा का ऊंचे से ऊँचा शिखर छू सके। 

जहां पर हम जीवन की शांति और आनंद की झलक पाते है।

 क्या कोई और मार्ग है? 

क्या कोई और मार्ग है - अपने भी तीर पहुंचने का। 

क्या स्वयं की शांति और आनंद के स्त्रोत तक पहुंच जाने की और कोई सीढ़ी है?

अगर वह सीढ़ी हमे दिखाई पड़ जाये तो जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है। आदमी काम के प्रति विमुख और राम के प्रति सम्मुख हो जाता है।

 एक क्रांति घटित हो जाती है। एक नया द्वार खुल जाता है।

मनुष्य की जाति को अगर हम नया द्वार न दे सकें तो मनुष्य एक "रिपिटीटिव सर्किल" अर्थात एक पुनरूक्ति वाले चक्कर में घूमता है और नष्ट हो जाता है। लेकिन आज तक काम के संबंध में जो भी धारणाएं रही है, वह मनुष्य को काम के अतिरिक्त नया द्वार खोलने में समर्थ नहीं बना पायी। बल्कि एक उल्टा उपद्रव हुआ। 

प्रकृति एक ही द्वार देती है। मनुष्य को अब तक की शिक्षाओं ने वह बंद भी कर दिया और नया द्वार खोला नहीं। शक्ति भीतर घूमने लगी और चक्कर काटने लगी। और अगर नया द्वार शक्ति के लिए न मिले तो घूमती हुई शक्ति को विक्षिप्त कर देती है। पागल कर देती है। 

और विक्षिप्त मनुष्य फिर न केवल उस द्वार से जो काम का सहज द्वार था, निकलने की चेष्टा करता है। वह दीवालों और खिड़कियों को तोड़कर भी उसकी शक्ति बाहर बहने लगती है। वह अप्राकृतिक मार्गों से भी काम की शक्ति बाहर बहने लगती है।

यह दुर्घटना घटी है।" यह मनुष्य जाति के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है।"

 नया द्वार नहीं खोला गया और पुराना द्वार बंद कर दिया गया। इसलिए मैं काम के विरोध में; दुश्मनी के लिए, दमन के लिए अब तक जो भी शिक्षाऐं दी गयी है उन सबके स्पष्ट विरोध में खड़ा हूं, उन सारी शिक्षाओं से मनुष्य की सेक्सुअलिटी बढ़ी है। कम नहीं हुई,बल्कि विकृत हुई है। 

क्या करें लेकिन, कोई और द्वार खोला जा सकता है।

मैंने शायद कभी इस बात को उजागर किया हो , संभोग के क्षण की जो प्रतीति है; वह प्रतीति दो बातों की है—टाइमलेसनेस और इगोलेसनेस ।

समय शून्य हो जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। 

समय शून्य होने से और अहंकार विलीन होने से हमें उसकी एक झलक मिलती है। जो हमारा वास्तविक जीवन है। लेकिन क्षण भर की झलक और हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते है। और एक बड़ी ऊर्जा एक बड़ी वैद्युतिक शक्ति का प्रवाह इसमें हम खो देते है। फिर झलक की याद ,स्मृति मन को पीड़ा देती रहती है। हम वापस उस अनुभव को पाना चाहते है। और वह झलक इतनी छोटी है कि एक क्षण में खो जाती है। ठीक से उसकी स्मृति भी नहीं रह जाती कि क्या थी झलक हमने क्या जाना था। बस एक धुन एक अर्ज ;एक पागल प्रतीक्षा रह जाती है। फिर उस अनुभव को पाने की। और जीवन भर आदमी इसी चेष्टा में संलग्न रहता है लेकिन उस झलक को एक क्षण से ज्यादा नहीं पाया जा सकता। वहीं झलक ध्यान के माध्यम से भी उपलब्ध होती है।

मनुष्य की चेतना तक पहुंचने के दो मार्ग है—काम और मेडिटेशन।

सेक्स प्राकृतिक मार्ग है, जो प्रकृति ने दिया हुआ है। जानवरों को भी दिया हुआ है, पक्षियों को भी दिया हुआ है। पौधों को भी दिया हुआ है। मनुष्यों को भी दिया हुआ है। और जब तक मनुष्य केवल प्रकृति के दिए हुए द्वार का उपयोग करता है, तब तक वह पशुओं से ऊपर नहीं है। नहीं हो सकता। वह सारा द्वार तो पशुओं के लिए भी उपलब्ध है।

मनुष्यता का प्रारम्भ उस दिन से होता है। जिस दिन से मनुष्य सेक्स के अतिरिक्त एक नया द्वार खोलने मे समर्थ हो जाता है। उसके पहले हम मनुष्य नहीं है। नाम मात्र को मनुष्य है। उसके पहले हमारे जीवन का केंद्र पशु का केंद्र है। प्रकृति का केंद्र है। जब तक हम उसके ऊपर उठ नहीं पाएँ उसे ट्रांसेंड नहीं कर पाएँ, उसका अतिक्रमण नहीं कर पाएँ, तब तक हम पशुओं की भांति ही जीते है।

हमने कपड़े मनुष्य के पहन रखे है। हम भाषा मनुष्यों की बोलते है, हमने सारा रूप मनुष्यों का पैदा कर रखा है; लेकिन भीतर गहरे से गहरे मन के तल पर हम पशुओं से ज्यादा नहीं होते। न ही हो सकते है : और इसलिए जरा सा मौका मिलते ही हम पशु की तरह व्यवहार करने लग जाते है।

हिन्दुस्तान - पाकिस्तान का बंटवारा हुआ और हमें दिखायी पड़ गया कि आदमी के कपड़ों के भीतर जानवर बैठा हुआ है। 

हमें दिखायी पड गया कि वे लोग जो कल मसजिदों में प्रार्थना करते थे और मंदिर में गीता पढ़ते थे वे क्या कर रहे है? वे हत्याएँ कर रहे है, वे बलात्कार कर रहे है। वे ही लोग जो मंदिरों और मसजिदों में दिखाई पड़ रहे थे, वे ही लोग बलात्कार करते हुए दिखायी पड़ने लगे। क्या हो गया इनको।

अभी दंगा फसाद हो जाये, अभी यह दंगा हो जाये, और यहीं आदमी को दंगे में मौका मिल जायेगा अपनी आदमियत का छुटटी लेने का। और फौरन वह भीतर छुपा हुआ पशु के वह प्रकट हो जायेगा। वह हमेशा तैयार है, वह प्रतीक्षा कर रहा हे कि मुझे मौका मिल जाये। भीड़-भाड़ में उसे मौका मिल जाता हे, तो वह जल्दी से छोड़ देता है "अपना ख्याल।"

 वह जो बाँध-बूंध कर उसने रखा हुआ है -अपने को। 

भीड़ में मौका मिल जाता है। उसे भूल जाने का कि मैं भूल जाऊं अपने को।

इसलिए आज तक अकेले आदमियों ने उतने पाप नहीं किये है, जितने भीड़ में आदमियों ने किये हे। अकेला आदमी थोड़ा डरता है। कि कोई देख लेगा। अकेला आदमी थोड़ा सोचता है कि मैं ये सब क्या कर रहा हूं। अकेले आदमी को अपने कपड़ों की थोड़ी फिक्र होती है। लोग क्या कहेंगे - "जानवर हो"!


लेकिन जब बड़ी भीड़ होती है तो अकेला आदमी कहता है कि अब कौन देखता है—अब कौन पहचानता है। वह भीड़ के साथ एक हो जाता है। 

      उसकी आइडेन्टिटी मिट जाती है। अब वह फलां नाम का आदमी नहीं है, अब वह भीड़ है। 

और बड़ी भीड़ जो करती है वह भी करता है। 

और क्या करता है ? आग लगाता है। बलात्कार करता है। भीड़ मे उसे मौका मिल जाता है। कि वह आपने पशु को वह फिर से छुटटी दे दें। जो उसके भीतर छिपा है।


आपने ऊपर के तथ्यों को पढ़ा ही होगा ... ज्ञात हो मैंने इसे सहज शब्दो में उजागर किया है ...


और मैंने कुछ अन्य पहलुओं को छेड़ा है जो शायद कोई भी नहीं नहीं करता ।।


माफ़ करना अगर किसी की अन्तर्वेदन में लिप्त कोई प्रश्न गूंजने की कोशिश भी करें क्युकी मुझे भी इन प्रश्नों के जवाब ढूंढ़ने है ।।


धन्यवाद् ✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻


~Akhilesh upadhyay 

@crux_of_akhil 

@_just_Akhi_

0 likes

Published By

Akhilesh Upadhyay

akhileshupadhyay

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

Please Login or Create a free account to comment.