ध्येय ( अजनबी की सीख )

अकेलेपन में प्रकाश की एक किरण।

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Akhilesh  Upadhyay
Akhilesh Upadhyay 18 Jul, 2020 | 1 min read

पारिवारिक संबंधों के मार्मिक विघटन और बढ़ती संवेदनहीनता भरी इस जिंदगी के कुछ अजीब किस्से सुनने को मिलते है ।

ऐसी ही कहानी को समेटे रहना तथा  मनुष्य के भीतर छिपी अच्छाइयों के पुनरुद्धार को बल देना लोगो की मानसिकता को मदद करने के विचार से सहमत हूं मैं ।

 कुछ अल्फ़ाज़ दिल की गहराईयों को स्पर्श करके खुद ही अपनी किताबों को पढ़कर सो जाया करते थे अर्थात मुझसे अत्यंत भावुक होकर अपनी आपबीती में शामिल करने वाले लोग बहुत होंगे परन्तु अब मुझे भी इन सबसे उबर कर बाहर आने की चाह चरमोत्कर्ष पर रही।।

रात्रि के पश्चात अब हमेशा की तरह खेत की राह आसान नज़र आ रही थी मुझे , 

मैंने भी फावड़ा उठाया और दैनिक जीवन की निर्वाह की कामना से पहले इसी कार्य को उचित समझा।

कुछ अनमोल रत्न मेरी मुख़ से विचरण करते हुए सुबह की शुरुआत पर बिखर रहे थे - 

"विस्मृती में जीना,

 जीवन की अंतिम राह बन गई ।

भूत भविष्य और वर्तमान जीना,

इस जीवन की चाह बन गई।।


अंधियारे में प्रकाश छीन लेना,

स्वयं प्रभु की बात बन गई।

कष्ट दमन , दुख बिना ,

अन्तिम फरियाद बन गई।।"

समस्याएं दूर नहीं थी लेकिन धुंध की मार मेरी खेतो को नुकसान ना कर दे इसीलिए जल्दी - जल्दी मेरे पैर बढ़ते गए।

कोहरे की चादर से हवा भी मुझसे बात कर रही थी, तभी उसकी आहट मेरे कानो में पड़ी ; 

' भाई साहब क्या हाल है ?-

" ऐसा उसने पूछा "।

मैंने भी फावड़ा ऊपर उठाते हुए संकेत दिया कि बस शाम की रोजी रोटी यूं ही चलती रहे इसीलिए जा रहे थे ।

वो कोई परदेसी प्रतीत हो रहा था, मैंने इस बार पहल कर उन्हें रोक कर उनसे उनका परिचय बतलाने का आग्रह किया ।वो

मुस्कुराते हुए बोला - 

प्रिय ! मित्र को ऐसे ही भूला नहीं करते ।

जवाब देने ही वाला था मैं , अचानक तेज़ बारिश की बूंदों ने हमें शरण लेने पर मज़बूर कर दिया , 

हम दोनों ने एक आंगनबाड़ी केंद्र पर रुकना उचित समझा।।

बात आगे बढ़ी , वो मुझे अपना सा जान तो पड़ता था किन्तु मनःस्थिति से मज़बूर मैं उसे पहचान न सका।

हा हा हा....ठहाके लगाते हुए उस सज्जन पुरूष ने बोला-

"अवसाद को साहस बनने पर विचार करो मित्र!"

ये सुनकर मेरे अंतर्मन की लहरें तड़प उठी ; 

मृदु भावों की अंगूरों की माला मैंने उसे पहनाई ।।

कभी कभी खुद के विचारों में भी शक होने लगता है, 

    जब मानव समाज के बीच रहने वाला इंसान भी खुद अपनी बातो के जवाब देने में सक्षम न हो...

एक मध्यम वर्ग के इंसान में वैचारिक प्रतिबद्धता और समझ में शायद कोई भी कमी नहीं होती,

" वो मेरे सारे प्रश्नों के जवाब सहजता से दे रहा था , 

   उसकी आंखों में मुझे फटकार की आवाज सुनाई दे रही थी परन्तु उसके विचार मन को एकाग्र कर रहे थे ।

मैंने भी वैचारिक दृष्टिकोण को उसके समक्ष रखा , उसने मेरा अभिनन्दन किया और कहा ! 

" आपके विचार इतने निश्चल है, आपको किसी की आवश्यकता नहीं है "

खुद की तलाश में खुद को कहीं दूर भेज दिया है आपने ! ""

 उसने एक छोटी सी पंक्ति को उजागर किया --- 

 "दीन जीवन के दुलारे

  खो गए जो स्वप्न सारे,

  ला सकोगे क्या उन्हें हृदय - समीप

  ओ गगन के प्यारे दीप"!   

               

उसने मुझे बतलाया आपके पास ही आपके सभी मन स्थिति के साक्षात प्रमाण मौजूद है।।


मौसम भी अब मेरी मनोचित दशा की भांति साफ सुथरा दिखाई देने लगा था।

उसने एक छोटी सी भेट उपहार स्वरूप प्रदान की और विदा मांगी ।।

अब वो जा चुका था ;

उसके वचन मेरे भाव को अभी भी कुरेद रहे थे , 

 वापस घर की ओर सुबह सुबह मैंने शरण ली और दिए हुए उपहार स्वरूप किताब को पढ़ने लगा ।


वाह ! 

    प्रसन्नचित होकर मैंने स्वयं को सराहा।

मेरे ही शब्द उस पुस्तक में क्रीड़ा करते हुए मुझे शांति की अनुभूति करा रहे थे।।

मैंने भी अपने विचारो को साझा करना चाहा, मैंने भी लेखन शैली में रुचि बढ़ाई और हमेशा कुछ न कुछ लिखता रहा ।। 

 एक बात तो साफ है - 

मेरा स्वयं का तजुर्बा आज काम आ रहा था; 

  आज मेरे ही शब्द मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे।

जिम्मेदारियों के बोझ तले मैंने अपने सपनों से समझौता किया, 

आज इन्हीं सब में जीने मरने की कसम ने मुझे बांधे रखा है , 

 *"अब और नही , सपने पूरे हो ना हो*

*अधूरे कितने है , ये सबब होना चाहिए*।"

हास्य - पूर्ण प्रसंग के साथ मैंने फिर एक बार उस अजनबी दोस्त के बारे में सोचा,

वह व्यक्ति एक अजनबी राहगीर ही था ...

जो मस्त मौला प्रवृत्ति का बेहतर इंसान साबित हुआ।। 

          मैंने भी ढेर सारी लेख लिखे बस इसी में आज मुझे चरम आनंद की प्राप्ति होती है।।

मेरे शब्द आज भी मुझे बल देते है और कुछ नवीन मसलों पर विचार उजागर करने में मदद और उनका निस्पादन करने में साथ देते है।।।

सच कहूं तो वहीं मेरी इस ज़िन्दगी का राजदार , और खुशनुमा क्षण हुआ ।।।।

 हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला की वो पंक्ति 

इस पल अमल करना चाहिए - 

"अलग अलग पथ बतलाते सब

पर मैं यह बतलाता हूं...

           राह पकड़ तू चला चल,

           पा जाएगा मधुशाला"।।

धन्यवाद् ।।।


~Akhilesh upadhyay 

@_just_akhi_

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Akhilesh Upadhyay

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