भगवान् पर शासन करनेवाली : संत आंडाल
संत कवयित्री आंडाल का मूल नाम गोदादेवी है। अपने इष्ट भगवान् कृष्ण के साथ स्वप्न में विवाह करनेवाली, उसे सत्य मानकर फूलों और स्व-रचित प्रेमपूर्ण, माधुर्य रस पगे गीतों की मालाएँ पहनाने और फिर इष्ट द्वारा स्वीकार किए जानेवाली होने से अर्थात् इष्ट पर शासन करने से उसे ‘आंडाल’ नाम मिला। आंडाल का अर्थ होता है ‘शासिका’। वह तमिल की नारी-संतों में विशिष्ट स्थान तो रखती हैं, तमिल के वैष्णव संतों में भी अत्यंत सम्मानित संत हैं। आलवार भक्त कवयित्री आंडाल ने सन् 716 ई. में ‘तिरुप्पावै-श्रीव्रतम्’ की रचना की थी। उनकी दूसरी रचना का नाम ‘नाच्चियारु तिरुमोलि’ है। मीरा को ध्यान में रखते हुए, उससे कई सौ साल पहले होनेवाली इस अनन्य कृष्णभक्त संत को बखूबी पहचाना जा सकता है। वह आठवीं शताब्दी में सगुण कृष्ण को अपना पति मानकर तथा उसे अपना वशवर्ती बनाकर उनकी शासिका बन बैठी थी; संप्रदाय ग्रंथों में विद्वानों-भक्तों ने आंडाल को भूदेवी माना है।
इस अनोखी संत के जन्म की घटना भी अनोखी है। श्रीविल्लिपुत्तूर गाँव के निवासी विष्णुभक्ति के अनन्य साधक पोरियालवार विष्णुचित्त नाम के साधक अपने उपवन में भगवान् की पूजा के लिए फूल चुन रहे थे। उन्हें तुलसी के पौधे के पास एक कन्या पड़ी हुई मिली। इसे वह अपने घर ले आए और बड़े स्नेह से उसका पालन-पोषण करने लगे। इस कन्या के मन में बचपन में ही भगवान् कृष्ण के प्रति प्रेम व्याप्त गया। वह कृष्ण को अपने से इतना अभिन्न मानती थी कि प्रतिदिन कृष्ण को पहनाई जानेवाली माला स्वयं पहन लेती और अपने में ही कृष्ण के सौंदर्य एवं रूप को निहारकर मुग्ध होती। कहते हैं कि पिता ने एक दिन ऐसा करते देखकर भगवान् कृष्ण को दूसरी नई माला अर्पित की, तब भगवान् ने स्वप्न में विष्णुचित्त से कहा कि गोदा की पहनी हुई माला उन्हें अतीव प्रिय है। तब से पिता अपनी इस पालित पुत्री गोदा को कृष्ण को अनुशासित करनेवाली, अपने प्रेमपाश में बाँधनेवाली शासिका—‘आंडाल’—कहने लगे। आज भी मार्गशीर्ष महीने में अविवाहित कन्याएँ सूर्योदय से पूर्व नदियों में पुण्यस्नान करके मनोकामना की पूर्ति का व्रत रखती हैं, प्रार्थना करती हैं, योग्य वर की प्राप्ति की मनौती मानती हैं। ‘तिरुप्पावै-श्रीव्रतम’ तमिल भाषियों का, साहित्य-प्रेमियों का प्रिय ग्रंथ है। इसमें तीस पद्य ‘पावै व्रत’ (कात्यायनी व्रत) से संबंधित हैं, जिनमें उद्देश्य, विविध फल आदि का वर्णन है। दूसरा ग्रंथ आंडाल का स्वप्न-द्रष्ट विवाह के वर्णन को लेकर है, जो विवाहादि शुभ अवसरों पर गाया जाता है। इसमें आंडाल के रचे 143 पद हैं। कहते हैं कि आंडाल के आग्रह पर ही पिता विष्णुचित्त ने उसका विवाह श्रीरंग क्षेत्र में स्थित भगवान् श्रीरंगनाथ से करवाया तथा उसी शुभ अवसर पर प्रेमाविष्ट भाव में आंडाल श्रीरंग की ज्योति में विलीन हो गई।
आंडाल की रचनाओं में वेदवाणी एवं उपनिषदों के रहस्यमय तत्त्वों को देखकर बाद में विशिष्टाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक श्री रामानुजाचार्य आंडाल के गीतों में भावविभोर हो जाते थे। श्री वेदांतदेशिकाचार्य ने आंडाल को आधार बनाकर ‘गोदा-स्तुति’ नामक ग्रंथ लिखा। राजा श्रीकृष्णदेवराय ने भी आंडाल के जीवन एवं भक्ति को विषय बनाकर तेलुगु भाषा में ‘आमुक्तमाल्यदा’ महाकाव्य लिखा। तमिल प्रदेश में प्रत्येक प्रमुख विष्णु मंदिर में आंडाल की मूर्ति स्थापित होना भी सिद्ध करता है कि आंडाल लोकजीवन में देवी के समान पूज्य है एवं प्रेरणा की प्रतीक है। उसकी वाणी में लोक-समाज, देश के कल्याण की भावनाएँ भी अनुस्यूत हैं। सूरदास और मीरा के कृष्ण, उनकी लोक-कल्याणी लीलाओं का स्मरण हो आना, आठवीं शताब्दी में आंडाल की वाणी की चरितार्थता सिद्ध होती है।
आंडाल के एक पद का भावार्थ यहाँ दे देना उपयुक्त होगा, जिससे उसकी देशप्रेम की भावना, लोक-संग्रही चेतना, धार्मिकता एवं नैतिक आचरण को अनुकरणीय बनाती है। आंडाल का कथन है—‘‘यदि हम त्रिविक्रम विष्णु के नाम पर कीर्तन करते हुए व्रतादि के लिए स्नानादि करके सद् आचरण करेंगी तो समस्त देश कष्ट रहित हो जाएगा। महीने में तीन बार वर्षा होगी। देश लहलहाते खेतों से सुंदर बनेगा, सरोवरों में कमल-फूल सुशोभित होंगे, रंग-बिरंगी मछलियाँ होंगी तथा देश अक्षय धन-धान्य से परिपूर्ण होगा। गायों के नीचे दूध भरपूर होगा, ग्वाले दिन-रात दोहन में व्यस्त रहेंगे, उनकी गागरें दूध से लबालब भरी रहेंगी।’’
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