डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्

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Abhishek Singh Tomar
Abhishek Singh Tomar 12 Sep, 2019 | 1 min read

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्

 

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे। डॉ. राधाकृष्णन् से मिलने की इच्छा रखते हुए एक बार स्टालिन ने कहा था, ‘‘मैं उस प्रोफेसर से मिलना चाहता हूँ, जो प्रतिदिन चौबीस घंटे अध्ययन करता है।’’ इतने महान् थे राधाकृष्णन्!

 उनका जन्म ५ सितंबर, १८८८ को आंध्र प्रदेश के एक गाँव तिरुताणि में हुआ था। उनके माता-पिता अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इस तरह उनका पूरा-का-पूरा पारिवारिक वातावरण धार्मिकता से ओत-प्रोत था।

 डॉ. राधाकृष्णन् की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा एक कॉन्वेंट स्कूल में हुई। बाद में भी वह ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करते रहे। मद्रास विश्‍वविद्यालय से उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वह प्रारंभ से ही अत्यंत मेधावी छात्र थे। वह प्रत्येक कक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे। स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वह मद्रास विश्‍वविद्यालय में ही दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक हो गए। बाद में वह इंग्लैंड स्थित ‘ऑक्सफोर्ड विश्‍वविद्यालय’ में भारतीय दर्शन के शिक्षक हो गए थे। वहाँ उन्होंने भारतीय धर्म एवं दर्शन का यथासंभव प्रचार-प्रसार किया। कुछ ही दिनों बाद वहाँ भारतीय धर्म एवं दर्शन की महत्ता छा गई।

एक बार की बात है। कलकत्ता विश्‍वविद्यालय में एक बार एक व्याख्यान-माला का आयोजन किया गया। वह व्याख्यान-माला एक कसौटी थी। उसके माध्यम से एक ऐसे योग्य अध्यापक का चयन करना था, जो दर्शनशास्त्र का गंभीर अध्येता और जानकार हो। डॉ. राधाकृष्णन् को भी आमंत्रण दिया गया। उन्होंने अपनी भाषण-कला से सभा को मोहित कर लिया था। उन्हें तुरंत विश्‍वविद्यालय का नियुक्ति-पत्र दिया गया। किंतु वहाँ वह बहुत समय तक नहीं रह सके। कुछ ही समय बाद उन्हें मद्रास विश्‍वविद्यालय की ओर से एक प्रस्ताव मिला। प्रस्ताव में उनसे आग्रह किया गया था कि वह मद्रास विश्‍वविद्यालय के उपकुलपति का पद ग्रहण करें। उन्होंने उस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

 एक वर्ष के भीतर ही उन्हें बनारस विश्‍वविद्यालय का उपकुलपति बना दिया गया। इस तरह वे वाराणसी जा पहुँचे। आगे चलकर डॉ. राधाकृष्णन् का चुनाव ‘यूनेस्को’ के अध्यक्ष के रूप में किया गया। ‘यूनेस्को’ एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है। इस तरह उन्हें बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय से ससम्मान मुक्त कर दिया गया।

 सन् १९५२ में उन्हें सोवियत संघ में भारत का राजदूत नियुक्त किया गया। सन् १९५२ में ही भारत का संविधान लागू हुआ। तभी उन्हें निर्धारित प्रक्रियाओं के द्वारा भारतका प्रथम उपराष्ट्रपति नियुक्त किया गया। सन् १९५७ में उन्हें पुन: देश का उपराष्ट्रपति नियुक्त किया गया।

 १३ मई, १९६३ को डॉ. राधाकृष्णन् भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। राष्ट्रीय जन-जीवन में उनकी भूमिका के संदर्भ में उनके नाम पर किसी भी प्रकार का कोई मतभेद नहीं था। उनको लेकर विवाद कम, सम्मान अधिक था।

 अत्यंत सादगी से भरा जीवन था उनका। वह बहुत गंभीर किस्म के पुरुष थे। सन् १९६२ में उन्हें ‘ब्रिटिश एकेडमी’ का सदस्य बनाया गया। उसी वर्ष उन्हें पोप जॉन पॉल ने अत्यंत श्रद्धा के साथ ‘गोल्डन स्पर’ भेंट किया।

 इंग्लैंड के राजमहल ‘बकिंघम पैलेस’ में आयोजित एक समारोह में उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ मेरिट’ का सम्मान दिया गया था।

 भारतीय धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने अनेक पुस्तकें लिखी थीं—‘भारत और विश्‍व’, ‘गौतम बुद्ध : जीवन और दर्शन’, ‘पूर्व और पश्‍चिम’, ‘धर्म और समाज’, ‘हिंदुओं का जीवन-दर्शन’, ‘भारतीय धर्म या पाश्‍चात्य विचार’। उनकी अधिकांश पुस्तकें अंग्रेजी में हैं।

 १३ मई, १९६७ को उन्होंने अपनी इच्छा से राष्ट्रपति का पद त्याग दिया।

 १३ अप्रैल, १९७५ को उनका निधन हो गया।

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