लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अपने राजनीतिक जीवन में जो मंत्र दिया, वह हमेशा-हमेशा के लिए एक उज्ज्वल नक्षत्र बन गया।
‘‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।’’
जब इस सिंह-गर्जना से देश का कोना-कोना गूँज उठा तो समाज के सभी वर्गों ने स्वराज्य-प्राप्ति के स्वप्न को स्वयं से जोड़ने की प्रेरणा ली, मानो यह सबकी सम्मिलित आकांक्षा बन गई थी।
लोकमान्य तिलक के राजनीतिक विचार तत्कालीन परिस्थितियों की उपज नहीं थे, वरन् उन्हें ठोस व प्रामाणिक आधार प्राप्त थे। निस्संदेह निर्भीकता, अटलता व हठधर्मिता उनके स्वभाव के विशेष अंग थे; किंतु उन्होंने कभी भी इन सिद्धांतों व मान्यताओं के कारण जनता पर आँच नहीं आने दी। उन्होंने सदा अपने कार्यक्रम कानून के दायरे में रहकर ही संपादित किए; क्योंकि वे जानते थे कि वैधानिक दायरे में ही जन-शक्ति का संगठन हितकर होगा। यदा-कदा उनके उग्र लेखों के कारण दूसरों पर उँगलियाँ उठीं भी तो वे तत्क्षण ढाल बनकर खड़े हो गए और उन लेखों को ‘केसरी’ के माध्यम से प्रकाशित करने का उत्तरदायित्व अपने सिर ले लिया।
वे क्रांतिकारियों के विरुद्ध नहीं थे, किंतु उन्हें हमेशा यही परामर्श देते थे कि वे दुःस्साहसी न बनें, पूर्ण विवेक के साथ हिंसा के साधनों का प्रयोग करें।
तिलक ने स्वतंत्रता-प्राप्ति से जुड़े सभी आंदोलनों व साधनों को मान्यता दी, किंतु उन्हें जनांदोलन सबसे प्रिय था। उनके समर्थ लेखों की बनावट व भाषा-शैली सीधे दिल पर वार करती थी। पाठक सोचने पर विवश हो जाता था। यही वैचारिक चिंतन जाग्रत् करना उनका प्रमुख उद्देश्य था।
उन्होंने स्वराज्य आंदोलन को व्यापक आधार देने के लिए देश के साधारण जनमानस को उससे जोड़ा। एक स्थान पर उन्होंने कहा था—
‘‘अगर हमारी लीग को केवल 5,000 रुपए चाहिए होते तो वे कोई भी व्यक्ति दे देता; किंतु मैं इस प्रकार धन-संग्रह नहीं करना चाहता। हमें एक-एक रुपया देनेवाले 5,000 लोग चाहिए। आगामी वर्षों में हमें इसी तरह होमरूल लीग के 50,000 सदस्य बनाने होंगे।’’
तिलक ने एक शिक्षक के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन का आरंभ किया। अध्यापन व समाज-सेवा के पश्चात् उन्होंने राजनीतिक जन-जागरण को ही अपना लक्ष्य चुना। राजनीतिक कर्मभूमि कांग्रेस होने के बावजूद वे उसकी नीतियों की आलोचना से भी पीछे नहीं रहे। जब नरम दल व गरम दल बने तो अलग से कांग्रेस सत्र बुलाने का प्रस्ताव भी आया था; किंतु उन्होंने साफ शब्दों में इनकार कर दिया। अपने सिद्धांतों पर अटल रहने का यह अनुकरणीय उदाहरण रहा।
समकालीनों से राजनीतिक मतभेद चाहे रहे, किंतु वे आत्मीय धरातल पर उनसे सदा जुड़े रहे। अकसर उन्हें पुरातनपंथी होने का समर्थक मान लिया जाता है; किंतु यह धारणा भ्रांत है। उन्होंने पारंपरिक हिंदू धर्म के मूल्यों तथा विश्वासों के साथ नए सुधारों को अपनाया। बस, वे केवल इतना चाहते थे कि धार्मिक संशोधनों के मामले में सरकार को हस्तक्षेप करने का अधिकार न मिले तथा जो भी सुधार हों, वे किसी पर कानूनन न थोपे जाएँ। व्यक्ति दिल से उन सुधारों की पैरवी करें, उन्हें अपनाएँ। उनका व्यक्तित्व एक विशाल व उदारवादी मनोवृत्ति रखता था, जो बदलते समय के साथ चलने की शक्ति व उद्यम को प्रश्रय देती थी।
कर्मोपासक तिलक आजीवन सार्वजनिक कार्यों में व्यस्त रहे; किंतु जहाँ भी समय पाते, ज्ञान-साधना में तल्लीन हो जाते। वे केवल पढ़कर ही संतुष्ट नहीं होते थे, विषय को पढ़ने के पश्चात् उसका चिंतन-मनन उनका विशेष गुण था। किसी भी विषय की तह तक जाकर सार तत्त्व खोज लाना उन्हें अच्छा लगता था। एकांतवास को वे परम उपलब्धि मानते थे; क्योंकि उन्हीं क्षणों में वे अपनी ज्ञान-पिपासा शांत कर पाते थे। उनकी लेखन क्षमता असाधारण व दिव्य थी।
मांडले कारावास ने हमें ‘गीता रहस्य’ जैसा अद्भुत ग्रंथ दिया। उस काल कोठरी में इतने बौद्धिक श्रम की कल्पना भी दुःसाध्य जान पड़ती है। उन्होंने ‘आर्कटिक होम इन वेदास’ नामक ग्रंथ का भी प्रतिपादन किया। ‘ओरायन’ में उन्होंने वैदिक काल का निरूपण किया। यह उनके गहन अनुसंधान, चिंतन व मनन का परिणाम था। इन दोनों ग्रंथों ने पूरी दुनिया के प्राच्य विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
यद्यपि वे स्वतंत्रता-प्राप्ति को अपना ध्येय चुनने के पश्चात् ज्ञानोपासना को अधिक समय नहीं दे पाए, किंतु उन्होंने जिन विषयों पर ग्रंथ लिखने और अनुसंधान करने की योजना बनाई थी, उन्हें देखकर ही आप उनकी विद्वत्ता का सहज अनुमान लगा सकते हैं। वे हिंदू कानून, शिवाजी-चरित्र, भारतीय राष्ट्रीयता, भारत का रामायण-पूर्व इतिहास, शांकर दर्शन व हिंदू धर्म का इतिहास आदि विषयों पर कार्य करने के इच्छुक थे।
तिलक ने पत्रकारिता के क्षेत्र को भी नए आयाम दिए। उन्होंने शुद्ध राजनीतिक पत्रों के माध्यम से अपनी भावनाएँ प्रकट कीं। उनके विषय में ‘भारत मित्र’ ने ‘तिलकांक’ में लिखा था—
‘‘जिस समय भगवान् तिलक ने राष्ट्रीय कर्मक्षेत्र में एक सच्चे कर्मयोगी की भाँति प्रवेश किया था, उस समय देश की राष्ट्रीयता का बीज सच-सच पूछा जाए तो अंकुरित भी नहीं हुआ था।...लोकमान्य ने भगीरथ प्रयत्नों द्वारा भारतीय राष्ट्र के लिए क्षेत्र तैयार किया। उसमें उन्होंने बीज बोया व सींचा। जो अंकुर फूटा, उसकी रक्षा के लिए स्वयं अनेक ऐसे कष्टों को सहा, जिन्हें सहन करना उन दिनों केवल लोकमान्य का ही काम था...।’’
पत्रकारिता के इतिहास में उस काल को ‘तिलक-युग’ का नाम दिया गया है। ‘तिलक-युग’ के पत्रकारों ने अपनी उग्र राष्ट्रीय भावनाओं द्वारा स्वतंत्रता रूपी यज्ञ में आहुति दी।
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