Abhishek Gound
26 Aug, 2024
khushinager
मेरी कुशीनगर यात्रा
“आज मने इतिहास देखा | तब मुझे आभास हुआ कि इतिहास ज़मीन में दफ़न होने के कारण , जितनी समय तक हमारे आखो से ओजल होता है | उतने ही गहरे व उलझे तथ्य हमारे सामने आते है , जब वह हमसे रुबरुह होता है | यदि हमें अपने जीवन को सार्थक बनाने कि तरफ अपना कदम रखना है , तो इतिहास से श्रेठ पथ प्रदर्शक अन्य कोई नहीं हो सकता |”
जब सूर्य की किरणे धरती पर फैली शबनम कि चादर समेटने में व्यस्त थी , तब तक मेरी यात्रा समाप्त हो चुकी थी अर्थात् मै कुशीनगर पहुँच चूका था | जब हम गेस्ट हाउस के हॉल में पहुंचे तो दीवारों पर टंगी कई पेंटिंगो में से एक ने मेरी नजर को उसपर से हटने को रोक लिया | उस पेंटिंग में बुद्ध जी एक पेड़ के नीचे विश्राम की विस्मयबोधक मुद्रा में लीन थे | मैंने बहुत कोशिश की , कि मै उस आकर्षण की कोई एक वजह खोज पाऊ पर हमेशा की तरह , मै पेंटिंग को समझने में असमर्थ रहा |
सबसे पहले मै परिनिर्वाण मंदिर देखने के लिए निकला | जिसके रास्ते में ऐतिहासिक अपूर्ण अवशेष के ईट व पत्थरो के रंगों ने मुझे आकर्षित कर लिया , इसकी वजह उन रंगों का इतिहास में शामिल होने का गुरुर था |
परिनिर्वाण मंदिर के अंदर महात्मा बुद्ध जी निर्वाण की मुद्रा में थे | जो सोते हुए पुरुष के सामान , उत्तर दिशा में सिर करके लेटे हुए है | दाहिने तरफ करवट लेने कि वजह से उनका मुँह पश्चिम दिशा कि तरफ था | इनके मुख के सामने दीवारो पर एक पुरुष व दो महिलाओं कि आकृति उभरी थी | सभी के चहेरो पर दुःख का भाव था | शायद वह उस समय की लोगो कि प्रर्तिकिया को दर्शाता है जब बुद्ध जी को महानिर्वाण प्राप्त हुआ था |
इसके साथ – साथ वहाँ का वातावरण बौद्ध भिक्षुओ के पूजा विधि से मनमोहक हो गया | मैं घंटो उस वातावरण में खुद को खोया हुआ पाया | परंतु सहसा मेरे मस्तिष्क में उठे एक प्रश्न ने न सिर्फ मुझे जगाया , अपितु एक अपराध का भी बोध कराया , क्योंकि इसका उत्तर अनेकों बौद्ध धर्म के अनुयायियों के जीवन के ध्येय के विरुध्द था |
समय वास्तविक वस्तु और हमारे मध्य एक पारदर्शी कांच की दीवार बना देता है ,जो समय के साथ मोटी होती जाती है | अर्थात् हम वास्तविक वस्तु से दूर होते जाते है और हमे इसका इल्म भी नहीं होता |
परन्तु विडम्बना यह है कि उस वस्तु का प्रतिबिम्ब ही अब हमे वास्तविक प्रतीत होने लगता है | यही फर्क महात्मा बुद्ध और उनके अनुयायियों में आ गया है | महात्मा बुद्ध जी ने जीवन भर मूर्ति पूजा का विरोध किया , परन्तु अब उनके अनुयायियों उनकी मूर्तियो की पूजा अर्चना कर रहे है |
मुझे लगता है कि मोक्ष या मंजिल पाने के सबके अपने -अपने व अलग-अलग तरीके होते है | यदि हम दूसरो के रास्तो पर चल कर मंजिल पाने की चेष्ठा करेंगे तो हमे उस व्यक्ति को भगवान मानना पड़ेगा जिसने उस रास्ते पर चल कर सबसे पहलें अपनी मंजिल व मोक्ष पाया है | परन्तु फिर शायद ही हम वास्तविक मंजिल या मोक्ष प्राप्त कर सके , क्योंकि उस व्यक्ति ने तभी मंजिल पाई जब वह अलग रास्ते पर चला | उसने अपने रास्ते स्वंय बनाए थे |
यही मार्ग अपना कर सिद्धार्थ “ महात्मा बुद्ध “ हो गए |
Paperwiff
by abhishekgound
26 Aug, 2024
yatra
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.