#कहानी
घड़ी की सुइयाँ सुबह के साढ़े आठ बजा रही थीं | अमूमन ये वक़्त मेरे लिए बहुत दौड़ भाग भरा होता है | लेकिन आज रविवार होने के कारण थोड़ी निश्चितता थी | सर्दियों की सुबह होने के कारण बच्चे रजाई में दुबके पड़े थे और पतिदेव चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार में डूबे हुए थे | मै जल्दी जल्दी घर के काम निपटाने में लगी थी तभी - बाईसा !रोटी दो, ठंडी बासी रोटी दे दो बाईजी | एक बेसुरी सी आवाज़ मेरे कानों को सुनाई दी | मुझे याद आया की कल रात का बचा खाना फ्रिज में रखा था | सोचा उसे ही दे दूँ | किचन से उसे रुकने की आवाज़ देकर मैंने खाना गर्म किया और उसे देने गयी |
दरवाजा खोलते ही सामने एक पच्चीस छब्बीस साल की एक औरत खड़ी थी | रंग सांवले से भी कुछ गहरा, शरीर के नाम पर हड्डियों का ढांचा लग रही थी, जगह जगह से फटी ओढ़नी से अपने शरीर को छुपाने के अनुचित प्रयास कर रही थी | पुराना लहंगा और ब्लाउज उसकी गरीबी की गाथा था |
साथ में तीन बच्चे भी थे जिनकी उम्र आठ से तीन साल के बीच होगी | तीनो उसे माँ कह कर बुला रहे थे |
मैंने बिना कुछ बोले खाना उसकी ओर बढ़ा दिया |
खाना लेते हुए वो बोल पड़ी - बाईसा कोई गरम शाल - सूटर होवे तो दो | दो जीवायती (गर्भवती) हूँ आज काल ठण्ड घणी लगे है |
उसकी बात सुनकर मैंने उसे घूर कर देखा अजीब से भाव मेरे चेहरे पर उभर रहे थे | वो गर्भवती है ! हाँ लग तो रहा है |
मैंने मन में सोचा | अंदर से अपना पुराना शाल और स्वेटर लाकर उसे दिया लेकिन मन में कुछ सवाल उमड़ रहे थे इसलिए मैंने उससे पूछ ही लिया - ये बच्चे भी तेरे है |
उसने हाँ में सर हिला दिया |
ना जाने क्यूँ मै उस पर बरस पड़ी - हालत देख इन तीनों की तेरी पास इनको पालने के तो पैसे है नहीं और उस पर एक और नन्ही सी जान को नरक की जिंदगी देने जा रही है | पाप है ये कुछ तो शर्म कर |
मेरी बात सुनकर वो आँखों में आये अपने आँसू छिपाते हुए बोली - बाईसा पीसा ( पैसा ) तो मेरी माँ के पास भी ना थे और ना उसकी माँ के पास | फिर भी पहले मेरी माँ इस दुनिया में आई और उसने मुझे भी पैदा किया | हमसे तो लछमी मैया का जनमो का बैर है बाईसा और रही बात बच्चों की तो यही तो हमारी असली कमाई है | इसका बाप तो कुछ करता नहीं दारू पी कर पड़ा रहता है | बच्चों की भीख से है म्हारा घर चलता है | जितने ज्यादा बच्चे उतनी ज्यादा कमाई होती है बाईसा | हमारे यहाँ ऐसा है होता है | इतना कह कर वो आगे बढ़ गयी |
मैंने देखा तीनों बच्चे अलग अलग घरों से भीख मांगने में लगे थे | आँखों के कोनो पर आयी आंसुओं की बूंदों के साथ मै उसे जाते हुए देख रही थी | अपनी कोख में अपनी उस संतान का बोझ उठाये वो जा रही थी जो कुछ समय बाद उसकी गृहस्थी का बोझ उठाने वाला था |
स्पष्ट था - एक गरीब माँ अपनी संतान को नहीं बल्कि अपने पालक को जन्म देने वाली थी |
पालक
एक गर्भवती महिला की मजूबरी की कहानी...
Originally published in hi
Sunita acharya
25 Dec, 2019 | 1 min read
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