जीवन मे स्पर्धा करनी चाहिए प्रतिस्पर्धा नही। हम अपने अंहकार मे इतनी तेजी ला लेते है कि हमे पता ही नही होता है कि हम कर क्या रहे है स्पर्धा करते करते प्रतिस्पर्धा करने लग जाते है और शत्रु पैदा कर लेते है या कहे दुश्मन बना लेते है। जीवन मे स्पर्धा अपने से करो। अपने से की गई स्पर्धा अापको जीवन मे कभी भी नही हारा सकती।।
•स्पर्धा से हमारा विजन दृष्टिकोण स्पष्ट होता है लेकिन जब बात प्रतिस्पर्धा की आती है तो दूसरे छोर पर क्या हो रहा होगा उसका भय हमेशा रहता है।।
•स्पर्धा से हम अपने अंदर की शाक्तियो को जान पाते है जबकि प्रतिस्पर्धा से हम सामने वाले की योग्यता को दबाने की कोशिश करते है।।
•स्पर्धा इंसान के व्यक्तित्व को निखार कर अच्छा बनाती है जबकि प्रतिस्पर्धा व्यक्तित्व को भार बनाकर रोष देती है।।
•स्पर्धा से हम एक लक्ष्य को साधते है आगे बढ़ने के लिए जबकि प्रतिस्पर्धा मे लक्ष्य हमे आगे नही बढ़ने देता है।।
•स्पर्धा से इंसान का आत्मविश्वास बढ़ता है जबकि प्रतिस्पर्धा से इंसान को भय उत्पन्न होता है।।
•स्पर्धा असफल होकर भी सफल है जबकि प्रतिस्पर्धा सफल होकर भी असफल है।।
•स्पर्धा जीवन मे नये रास्ते दिखाती है जबकि प्रतिस्पर्धा हमे कभी-कभी आत्महत्या करने पर मजबूर करती है।।
•स्पर्धा से प्रेम बढ़ता है खुद से और दूसरो से जबकि प्रतिस्पर्धा से मनो मे द्वेष पैदा होता है खुद से और दूसरो से।।
•स्पर्धा मे गुणात्मक परिवर्तन है जबकि प्रतिस्पर्धा मो ऋृणात्मक विघटन है।।
•स्पर्धा करने वाले मे एक स्वाभिमान होता है जो उसे कभी नीचे नही गिरने देता जबकि प्रतिस्पर्धा मे व्यक्ति मे अभिमान होता है जो उसे कभी ऊपर नही उठने देता है।।
जीवन मे हमे यह देखना जरूरी है कि हम कहाँ क्या कर रहे है हमारे कारण कोई परेशान तो नही हो रहा है न हमे अपने से लड़ना है तभी हम जीवन की अनेको ऊंचाईयो तक पहुँच पायेंगे।।
-उदित जैन
@imuditjain
@_uduaash_ink_
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
अति उत्तम लेख👏
बहुत बहुत आभार आपका जी 🙏🙏🙏
प्रेरणादायक
शुक्रिया भैया 🙏🙏🙏
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