चली आज अपने सर वह भार लेकर,
माँ बनने के जो थी दलान पर।।
मुख पर थोड़ा सा भी तनाव न था,
मादा थी वह जो हर भय दूर कर देती थी।।
हर पीड़ा को जिसने बड़े प्रीति से निभाया,
अपने कुटुंब को जिसने इस लोक से बचाया।।
गाभिन होकर भी जिसने पथ कंठीला ही अपनाया,
शिशु के प्राणो को पथो पर उपजाया।।
भरी गठरी ले मद पर बोझ अपने आस्तित्व का बनाया,
कोई न टोके इसलिए मुख शांत होकर अपनो को समझाया।।
तय कर दिया वह पीड़ा से भरा पल भी,
जहाँ अपने खून को एक अहित न पहुँचने दिया।।
माँ ही है वो जिसने हर पल हमे,
अपने वक्ष से लगा इस दुनिया से बचाया।।
नही कहती वह उस दर्द को भी जिसने,
जिसमे 9 माह उसने अपने गर्भ मे हमको है निहारा।।
©Udit Jain
(Delhi)
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