संकुचित सदा रहा हूँ,
अमित होना चाहूँ,
गंभीरता से स्पर्श करके,
संगीन होना चाहूँ।।
बनकर तरंगनी मै,
बस तुझमे ही रमना चाहूँ,
अभ्र की गोद भरकर,
जी भरकर बरसना चाहूँ।।
जानूं मै तुझमे रमना,
इतना नही है आसां,
पथ जटिल है लेकिन,
छोडूं न लक्ष्य की आशा।।
खीज समान कंकर का,
मिलन भी मे सहूंगा,
तेरे गुण ह्रदय मे रहकर,
उदासीन सादा बनूंगा।।
पतियाना समान टीला,
जब तबदीर नही यह देंगे,
उनके ह्रदय नम कर ,
आगे प्रवृत्त हो चलूंगा।।
ऊंची और नीची राह जो,
शंकित जो मुझे करेगी,
माया से अपनी छलकर,
राह दूषित जो करेंगे।।
शंकित मै कभी न हूंगा,
राहे दूषित न होने दूंगा,
प्रयोजन मैने जो साधा,
उसे संपूर्ण मै करूंगा।।
-उदित जैन
(Delhi)
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