✍ जीवन है कठपुतली ।

मैं कोई कठपुतली नहीं, मैं भी एक इंसान ही तो हूं।

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Tejeshwar Pandey
Tejeshwar Pandey 11 Jul, 2020 | 1 min read
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इंसान का जीवन एक कठपुतली ही तो है, जैसे-जैसे वक़्त गुजरता जाता है वैसे-वैसे इंसान की मुसीबतें भी बढ़ती जाती है। जीवन को खुशियों से भर लेना या दुखों का पहाड़ बना लेना इंसान के वश में होता है। इंसान के जीवन में जहां खुशियां होती है वहां मुसीबतें भी होती है।उन मुसीबतों का किस तरह हमें सामना करना है, यही इंसान के जीवन का उद्देश्य होता है। लेकिन इंसान मुसीबतों का सामना करने की बजाय उसे पहाड़ बना लेता है और एक ऐसा इंसान जो उसे नजर भी नहीं आता है उस पर वो खुद से भी ज्यादा विश्वास करने लगता है और हमेशा सोचता रहता है कि वही मेरे लिए दुख और खुशियां लेकर आता है वह चाहे तो हर मौसम मे हरियाली है वरना सावन में भी सुखा है। यह कल्पना किसी और की नहीं बल्कि उसी “ईश्वर” के लिए है जिसे वह परम परमेश्वर परम शक्ति मानता है और उसी के इंतजार में वह अपने जीवन का अमूल्य समय बेकार में निकाल देता है। वो सही राह पर चलने के बजाय व्यर्थ ही इधर उधर बेमोड रास्तो पर जाकर अपना वक़्त बर्बाद करता रहता है और जब वक्त निकल जाता है तो उसके पास मृत्यु के द्वार जाने के सिवा और कोई उपाय नहीं बचता है।ऐसा ही धरती पर लगभग हर एक इंसान के साथ यह होता है। यदि इंसान भटक जाए तो इंसान का उसका परिवार समाप्त हो जाता है यदि वह ईश्वर से खुशियों की कामना करता है तो उसकी आवाज ईश्वर तक नहीं पहुंच पाती है तो वह मौत को गले लगाने की सोचने लगता है। वह बार-बार मरने का प्रयास करता है लेकिन मौत भी उसे बार-बार जीवन जीने का मौका देती रहती है। फिर जैसे जैसे वक्त गुजरता जाता है वैसे वैसे इंसान की मुसीबतें बढ़ती जाती है। इंसान फिर ईश्वर का इंतज़ार छोड़ खुशियां ढूंढने के लिए संसार में इधर उधर भटकने लगता है, दर दर ठोकरे खाने लगता है। फिर कुछ वक़्त के बाद उसे एहसास होता है कि दुख तो सब की जिंदगी में हैं। यह देखकर वह मौत के रास्ते से दूर हो जाता है और फिर से जिंदगी जीने के रास्ते चल पड़ता है। इंसान को समझ में आ जाता है कि यह जीवन एक कठपुतली है जो इंसान को अपने अनुसार नचाती रहती है और इसके पात्र हम बन जाते हैं।

मैं कोई कठपुतली नहीं, मैं भी एक इंसान ही तो हूं जो इस बाहर की दुनिया से अनजान हूं भीतर छिपे सैकड़ो जज़्बातो को दबा कर भी कुछ नहीं कर पाता हूं। फिर कभी कभी सोचता हूॅं की बस अब इस बेबस जिंदगी को और नहीं सह पाऊंगा। जिसे क्यायहु वही दूर हो जाता है। क्यों एक पल की भी खुशियां मेरे पास नहीं टिक पाती हैं कभी किसी का भरोसा टूटता है तो कभी कभी वे रिश्ते ही टूट जाते हैं। इन रिश्तों के रूठने मनाने के चक्कर में ये दिल टूट जाता है। इंसान बस कठपुतली बन कर रह गया है इसके अलावा और कुछ नहीं कर सकता।

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