एक बच्चा चाहे वो लड़की हो या लड़का इनका रोने पर कोई काबू नहीं होता हैं. वो कभी भी रोने लगते है, लोग उनके बारें में क्या सोचेंगे ये परवाह किए बिना. क्योंकि उनमें इतनी समझ होती ही नहीं हैं. चाहे महिलाएं इमोशनली कितनी ही स्ट्रांग हो वो एक ना एक दिन अपने आप को रोने से रोक नहीं पाती हैं. लेकिन आदमी बहुत मुश्किल से आप को रोते हुए दिखेंगे ।
असली मर्द कभी रोते नहीं, क्योंकि उनमें से कई पुरुष आंसूओं को कमजोरी की निशानी मानते हैं। पुरुषों के हार्मोन भी उनके भावनात्मक अभिव्यक्तियों को रोकते हैं।
क्या पता की ये सच है की नहीं पर मेरा यह मनाना है और अब तक का अनुभव यह है की हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहां महिलाओं के पास ही रोने के सभी अधिकार हैं केवल वे ही खुशी या दुख के क्षणों में अपनी भावनाओं को रो कर व्यक्त कर सकती हैं। बचपन से ही हम पुरुषों को अपनी भावनाओं को दबाना सिखाया जाता हैं हमें ये बताया जाता है की मर्द लडके या पुरुष कभी रोते नहीं कभी भी हमें लोगों के सामने हमारे आंसुओ को व्यक्त नहीं करना चाहिए ।
हमारा यह मानना है की अक्सर पुरुष ना रोने की वजह से एक घातक उदासी अनुभव करते हैं। पुरुष सारे दर्द को अपने ही भीतर समेटे हुए खुद को बंद कर लेते है, जो कभी भी बाहर नहीं आने देता । हम सब में से बहुत से लोग इस दर्द को अपने सीने में ही दफना देते है और अन्ततः वे अपने ही जीवन का अंत कर लेते है। शायद औरतों की तुलना में पुरुष अधिक उदासीनता का सामना करते हैं, जिसका एक कारण ना रोना भी हो सकता है। हम पुरुषों को उनकी संवेदनशीलता, कष्ट, और भावुक्ता, कमजोरी दिखाने के लिए रोने की शायद हमारे मर्दो का समाज हमें अनुमति नहीं देता।
जीवनभर पुरुष अपने भीतर एक छबि लेकर चलते रहते है, जिस में उनको एक शक्तिशाली सुपर हीरो की तरह चित्रित किया गया है। लेकिन वास्तव में महिलाओं की तरह पुरुषों में भी भावनाएँ, संवेदनाएँ, दर्द और संवेदनशीलता होती हैं, जिन्हें वो भी व्यक्त करना चाहते हैं। बचपन से हम पुरुषो को समाज ने ग़लत परिभाषा दी है। एक आदमी होने का मतलब एक लड़का होने का मतलब उन्हें हमेशा नियंत्रण में और प्रमुख रहना चाहिए। फिर पुरुषो के लिए अपनी भावनाओं को दिखाना कायरता की निशानी होती है। पुरुषो को कभी भी अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं करना चाहिए । पुरुषों के लिए रोने का मतलब, वे महिलाओं की तरह बर्ताव कर रहे हैं। भावुक और कमजोर दिल वाले है। सबसे बड़ी कठिनाई तो तब होती है जब दूसरे पुरुषों द्वारा ही ये कहा जाता हैं कि “मर्दों की तरह काम करो“ मर्दो कभी रोते नहीं । इस बात का क्या अर्थ है ? क्या आदमी होने का अर्थ यह है कि वे अपनी भावनाएँ ना व्यक्त करें? क्या इसका अर्थ यह है कि हर समय पुरुष कठोर रहें ? पर ऐसा क्यो ? पूरी ज़िंदगी हम पुरुष मर्दानगी की ग़लत परिभाषा के साथ जीनें को बाध्य क्यों हैं।
हमारे तो यहाँ मानना है की जब आप कुछ महसूस करे तो खुद को व्यक्त करने के लिए ज़रूरत पड़ने पर रोएँ रोना जरुरी है। रोने से मन हलका होजाता है भीतर का भारीपन कुछ हल्का सा हो जाता है। पुरुषो को बिना कोई मुखौटा पहने अपनी भावनाओं को साफ़ साफ़ व्यक्त करना चाहिए। हमारे रोने से दूसरे लोग क्या सोचते है, उसकी चिंता नहीं करने चाहिए।
शायद सदियों से चली आ रही धारणा कि रोना औरतों की निशानी हैं कि वजह से आदमी रोने से बेहतर अपने ज़ज्बातों को छिपाना बेहतर समझते हों. लेकिन है तो वो भी इंसान ही कुछ मौके ऐसे होते हैं कि वोे चाहकर भी अपना रोना नहीं रोक पाते हैं. और अपने आप को रोने से रोकना भी नहीं चाहिए और ये धारणा टूटनी चाहिए की हम लडके है या हम पुरुष है हम कभी रोते नहीं।
भीतर से ये बात निकल के आती है
हमारे रोने पर हसने वाले ए लोगो,
तुम्हे बस हमें समझने का एक बेहतर नज़रिया चाहिए।
हम भी बिल्कुल तुम्हारे जैसे होते हैं।
ये बात हमेशा याद रखना की लड़के भी रोते हैं ।।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
🙌🙏
thanks Manu Jain ji
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