बड़ा क्लिष्ट सा लगता है ये शब्द
'अन्नदाता' !
पता नहीं सुन कर भी
क्यों आनंद न आता?
खुद की झोली खाली
और मैं दाता कहलाता!
इस यत्न मे,
इस प्रयत्न मे,
मेरे घर भी चूल्हा जल सके,
ताकता रहता हूं
कभी आँखे उठा कर
आकाश की ओर
कभी आँखे झुका कर
बाजार की ओर।
मैं भी जी सकूं सर उठाकर
कब आएगी जीवन में
वो सुनहरी भोर?
मेरी माँ का इलाज मैं
अगली फसल तक
टाल नहीं सकता
और कितना कर्ज देगी सरकार
अन्नदाता हूं भीख मांग नहीं सकता।
मेरी फसलों का आधा पौना ही दाम,
दिलवा देना जरा बिचौलिये बाबू!
सुनो तुम्हें शर्म कैसी?
तुम्हारा यही तो है काम।
धरती का भी सीना सूख चुका
वर्ना पानी के लिए
मैं कुँए खोद लेता,
शरीर जो पहले सा मेरा होता
हल गले में बाँध कर
खुद ही खेत जोत लेता।
तुम्हीं बताओ साहब अब
भाड़े के ट्रैक्टर में डीज़ल कहाँ से डालूं?
माटी के खेत को
अपने खून से सींच कर भी
मौसम की मार के साथ
बोलो सोना कहाँ से निकालूं?
जहां मेरे पिता के दिए खेत को
मैं माँ बना कर पूज रहा हूं
वहीं बेटा कहता है मेरा
सिर्फ ममता से कैसे परिवार का पेट भरूंगा?
जाओ मुझे बेदखल कर देना खेतों से पर
तुम्हारी तरह मैं अब किसानी नहीं करूंगा!
पेट की क्रांति है साहब
कैसे शांत करोगे?
मेरा बेटा नहीं बनना चाहता अब
बोलो तुम अन्नदाता बनोगे?
-सुषमा तिवारी
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