नीचे के कमरे से झन्नाटेदार आवाज आई थाली गिरने की और दिव्या की नींद खुल गई। घड़ी में देखा तो रात के बारह बज रहे थे। छोटे शहरों के लिए यह आधी रात ही होती है। छुट्टियों में घर आए दिव्या और अनुराग भी जल्दी ही सोने चले गए थे। दिव्या ने अनुराग को उठाया
" अनु! देखो तो नीचे से कैसी आवाज आ रही है?"
दोनों फटाफट नीचे उतर कर गए। जोर जोर से चिल्लाने की आवाज माँ पिताजी के कमरे से आ रही थी। अनुराग दौड़ते हुए पहुंचा। वहाँ का दृश्य सब कुछ साफ बयां कर रहा था कि आज फिर पिताजी का बेमतलब का गुस्सा माँ पर उतरा है। घर में खाने की थाली पड़ी हुई थी और खाना चारो ओर बिखरा हुआ था। माँ कोने में खड़ी आंसू बहा रही थी। दिव्या फटाफट माँ की ओर लपकी और उन्हें एक जगह बिठाया। उम्र के पचपनवे साल में माँ यानी कि लता उम्र से ज्यादा कमजोर हो चली थी।
" सुकून मिल गया तूझे? तू चाहती थी बच्चों का सुख चैन भी छीन जाए! जब मना किया था कि नहीं खाऊँगा तो थाली लेकर आधी रात को तमाशा करने की क्या जरूरत थी?" पिताजी गरज रहे थे।
दिव्या आश्चर्य चकित होकर अपने ससुर को देखने लगी। ये वही पिताजी है जो शाम तक माँ को 'आप' और 'श्रीमती जी' कहकर संबोधित कर रहे थे और अचानक ये कैसा रूप धर लिया है? ' रे, तू ' जैसी भाषा का इस्तेमाल माँ के लिए.. जिनके त्याग और समर्पण की गाथा पूरा परिवार गाता है।
अनुराग ने पिताजी से कहा " आप कभी सोचते भी है कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे? इस उम्र में यह सब शोभा देता है क्या आपको? बचपन से ही हम देखते आए है.. माँ द्वारा किए गए प्रयास आपको तो नजर ही नहीं आते है। कम से कम अब जब बहू आ गई है तो उसके सामने लिहाज कर लिया होता?"
" ये जानबुझ कर बच्चों के सामने मुझे गुस्सा दिलाती है ताकि तुम सब मुझसे नफरत करो.." पैर पटकते हुए पिताजी वहाँ से चले गए।
अनुराग ने माँ की ओर देखा जो बहू के सामने इस तरह पति द्वारा अपमानित किए जाने पर लज्जित थीं।
अनुराग ने वैसे तो दिव्या को सब कुछ बताया था कि कैसे पिताजी ने जिंदगी में किसी चीज़ को गम्भीरता से लिया ही नहीं.. ना अपने काम को ना परिवार की जिम्मेदारी को, वो माँ थी जो सबको संभालते आई और साथ साथ पिताजी के हर अहम को पोषित भी करती आई थी। दिव्या ने अनुराग से पिताजी के ऐसे गुस्से का सुन रखा था पर आश्चर्य की चार साल में कभी देखा नहीं था। वो बच्चों से बहुत अच्छे से बात करते और अपना लाड प्यार लुटाते थे। हालाँकि मौका मिलते ही माँ को किसी ना किसी बहाने से गलत ठहराना या शर्मिंदा करवा देते थे परन्तु ऐसा गुस्सा दिव्या ने नहीं देखा था।
" माँ! आप इतना कुछ क्यों सहती हैं?.. आपको मुझसे कहना चाहिए था.. क्या मैं आपकी बेटी नहीं?"
दिव्या के पूछने पर लता फूट फूट कर रोने लगी।
" क्या कहती मैं बहू? किस मुँह से कहती? शादी को पैंतीस वर्ष हो चुके हैं.. जिस उम्र में शादी करके आई तब गरीब पिता के आंगन से उनसे उनकी पगड़ी की लाज रखने का वादा करके निकली थी। आज तक निभाते आई हूँ.. अब क्या कहती और कैसे कहती?"
" माँ! इसका मतलब ये तो नहीं हुआ कि आप ताउम्र सहती रहें?"
अनुराग खड़ा खड़ा खुद को भी दोषी मान रहा था। पिताजी जब नाराज हुए थे बच्चे जिद करके माँ को मजबूर कर देते थे उनसे माफी मांगने के लिए ताकि घर का माहौल अच्छा हो जाए पर शायद माँ अंदर ही अंदर खुद के आत्म-सम्मान को मारती चली गई। माँ की बात सुनता कौन? सारे लोगों को यही दिखता कि उनका पति गहने, कपड़े, पैसे, घूमना फिरना.. किसी चीज़ की कमी नहीं रखता उन्हें, फिर किस बात की शिकायत करतीं वो?
समाज में औरत की चाहत का मापदंड धन संपत्ति और भरा पूरा परिवार ही तो है!
" ऐसी बात नहीं है दिव्या की मैंने कोशिश नहीं की.. जब शुरू शुरू में अपमानित हुई तो माँ से बोला तब माँ भी बोली कि समाज में तूझे पत्नि का स्थान दिया है.. इतनी दौलत, ऐशो आराम.. एक औरत को और क्या चाहिये? हम भी तो ऐसे ही जीते आए है। मान अपमान ये सब किताबी बाते है। पति और परिवार की सेवा तेरा कर्तव्य है और औरत को जो अधिकार मिलने चाहिए सब तूझे मिले है.. अब चार जमात पढ़ी हुई बातों को लेकर बातों को तूल मत दे.. तेरी और भी चार बहने है, तेरी वजह से वह घर में रह जाएंगी।"
दिव्या माँ की बाते सुन कर स्तब्ध थी।
" दिव्या! मैंने जब अपनी सास, बहन या किसी भी और दूसरी औरत से जब यह जानना चाहा कि हमे पति के दिल का रास्ता जानने के लिए हज़ारों सलाह दी जाती है, क्या औरत के दिल को यही सब चाहिए.. पैसा, साड़ी, गहने? तो सबने यही कहा कि औरत को अपनी इच्छायें बताने का अधिकार ही नहीं दिया गया है.. सिर्फ कर्तव्य बताये गये है.. "
" नहीं माँ.. औरत के दिल का रास्ता ये पैसे, गहने, साड़ियां नहीं है.. सिर्फ उसके परिवार और बच्चों का विकास उसका विकास नहीं है... उसके परिवार को समाज में सम्मान मिल जाना उसका सम्मान नहीं है.. उसे अपना सम्मान चाहिए होता है। और हम औरते पहली गलती यही करती है कि आत्म सम्मान ही नहीं करती तो औरों से क्या उम्मीद की जाए? पुरुषों से क्या उम्मीद की जाए जब एक औरत दूसरी औरत का सम्मान नहीं करती? अपने द्वारा निर्वाह किए गए कर्तव्यों के बदले गहने, कपड़े, मकान को पारितोषिक के तौर पर स्वीकार कर संतुष्ट हो जाना पहली गलती होती है। माँ हम भी ईश्वर द्वारा बनाई गई कृति हैं.. उतना ही हक हमे भी है सम्मान से जीने का "
दिव्या की बाते सुनकर लता उससे लिपट गई। दिव्या को अनुराग से इस बाबत कभी शिकायत नहीं रही क्योंकि शायद माँ ने जो झेला वो समझती थी इसलिए बच्चों को ऐसे संस्कार दिए ताकि उनके चलते कभी कोई और दुखी ना हो। इस बात का दिव्या ने भी कभी गलत फायदा नहीं उठाया था। वह सम्मान लेना भी जानती थी और देना भी। पर माँ ने सम्मान दिया तो सब को बस खुद के लिए अर्जित करने का साहस नहीं कर पाई।
" माँ! तब परिस्थितियां चाहे जो रही हो अब बस!! अब मैं आपको इस अपमान भरे रिश्ते से आजाद करवाऊंगी.. कल हम पिताजी से बात करेंगे.. यदि वो मानते है तो ठीक वर्ना आप हमारे साथ चलेंगी "
लता क्या कहतीं ? उन्होंने जब शुरू में बच्चों के साथ जाकर रहने की इच्छा प्रकट की तो उनके पति भड़क उठे थे। वो दरअसल अकेले रह कर लता पर शासन कर अपने अहम का तुष्टिकरण ही चाहते थे। बच्चों द्वारा लता को दिए जाने वाला सम्मान भी उन्हें हज़म नहीं होता और गाहे बगाहे लता को बच्चों के सामने गलत साबित करने की कोशिश में लगे रहते थे। फिर लता ने भी मन मार लिया कि क्या बच्चों की जिंदगी में परेशानी खड़ी करनी। जो है वो खुद अकेले झेल लेगी। आज शाम को वह चाय देने में जरा सा लेट क्या हो गई उनके पति ने तिल का ताड़ बना दिया। उन्हें लता ही अपनी सेवा हाजिर चाहिए थी। खुद को इस रिश्ते में इतना झोंक चुकी थी कि छोटी मोटी बीमारियाँ भी परेशान नहीं कर पाती थी और बड़ी बड़ी शारीरिक समस्याएँ वो सबसे छुपा जाती थी। आज दिव्या की बाते सुन लता मे हिम्मत आ गई थी। आज जैसे उसके दिल की आवाज़ उसके अलावा किसी और ने सुनी थी।
अगली सुबह जब लता नहीं आई चाय लेकर तो पिताजी फिर चिल्ला रहे थे।
" सारे तमाशे कर के अब आगे बच्चों के सामने और क्या करना चाहती हो? बात बढ़ानी है तुम्हें?"
" नहीं पिताजी! अब कोई बात नहीं बढ़ेगी.. अब माँ नहीं सहेगी.. उनकी बची हुई जिंदगी वो अपने दिल की सुनेगीं।"
" अच्छा! तो क्या करेंगी तुम्हारी माँ? इस उम्र में मुझे तलाक देंगी? किस चीज़ की कमी रखी है मैंने? और क्या बताएंगी लोगों से?" पिताजी का अहम उनके मुँह से बोल रहा था।
" आप इतने सालो में अभी तक नहीं जान पाए कि वो क्या चाहती है तो अब समझा कर कोई फायदा नहीं है.. ना कोई तलाक होगा.. ना समाज को कोई सफाई.. अब सिर्फ उनके दिल की होगी। हम जा रहे है माँ को लेकर वापस, अगर आपको अपनी की गई गलतिया समझ आ जाए तो आप भी आ जाइएगा वर्ना उन्हें चैन से जीने दीजिए। "
अनुराग और दिव्या वापस जा रहे थे। लता भी साथ खड़ी थी। चेहरे पर कोई चिंता नहीं कोई ग्लानि नहीं.. जैसे अपने दिल तक पहुंचने का रास्ता उन्हें मिल चुका था।
दोस्तों! एक औरत अपने परिवार के हर सदस्य को खुश रखने के लिए यह पता करती रहती है कि उनकी खुशियों का कारण क्या है? उनके दिल का रास्ता खोजने की होड़ में अपने दिल को भूल जाती है। भला जब हम खुद का सम्मान नहीं करेंगे तो दूसरों से क्या उम्मीद करेंगे? आप एक साथ सब को खुश नहीं रख सकते हैं। सम्मान की मांग कीजिए। यह औरत का मूलभूत अधिकार है। पैसा प्रॉपर्टी और गहनों में हिस्सा जरूरी नहीं पर सम्मान में बराबर का हिस्सा होना चाहिए। समय काल चाहे जो रहा हो हर युग में, समय काल में साहसी और आत्म सम्मानित स्त्रियों की गाथायें सुनने को मिलेगी। हाँ हो सकता हो थोड़ा संघर्ष करना पड़े परंतु यह इतनी बड़ी चीज़ भी नहीं है जो आपके परिवार वाले आपके द्वारा दिए गए प्रेम और समर्पण के बदले आपको दे ना सके और इतनी छोटी चीज़ भी नहीं है कि चमकती साड़ियों और खनकते गहनों के बीच एक औरत इसे अनदेखा कर दे। सम्मान दीजिए सम्मान लीजिए.. आखिर औरत के दिल का रास्ता सम्मान की राह से होकर जाता है।
©सुषमा तिवारी
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