देखना फिर मिलेंगे

छुट्टन की निराशा से भरे जीवन को लक्ष्य की प्राप्ति उस बोरिंग सफर में ही होनी थी क्या?

Originally published in hi
Reactions 2
673
Sushma Tiwari
Sushma Tiwari 10 Jul, 2020 | 1 min read
Motivational Romance Be positive

पिछले स्टॉप से बस छूटी तो सर पर चढ़ी धूप ठंडी हो चली थी। खिड़की से अब ठंडी हवा आने लगी थी। दिन भर की गर्मी और उमस ने दिमाग में शार्ट सर्किट किया हुआ था। छुट्टन उर्फ छज्जन लाल कभी मौसम को कोसता तो कभी अपने फैसले को जिसने नॉन ऐसी बस में सफर करने का निर्णय लिया था। पैर मुड़े मुड़े उकड़ू हो चले थे पर फैला नहीं सकते थे ना ही इतनी जगह की पालथी मार कर बैठ सकते थे। काहे की साथ में एक मोहतरमा बैठी थकी और तमीज तो उसमे कूट कूट कर भरी हुई थी। वह भी साथ ही चढ़ी थी। अपना बैग सीट के उपर बनी जगह पर ठूंस कर एक किताब ले कर पढ़ते हुए बैठे बैठे सो गई थी। छुट्टन को गुस्सा आ रहा था कि अब पैर फैलाना बड़ा मुश्किल है। मोहतरमा की तरफ देखा तो वो किताब चेहरे पर धर कर सो गई थी। किताब का नाम देखा तो गुस्सा छू हुआ और चेहरे पर मुस्कान छा गई।

लो भाई! यही तो वह किताब है जिसके लिए छुट्टन आज एक किताब वाले से भिड़ आया था। वह तो कहा भी उसको की दाम पर जरा डिस्काउंट मारो, हमे भी पता है यह पाइरेटेड कॉपी है तो किताब वाला बकैती करने लगा था। जब कौनो मुरौवत नहीं किया तो छुट्टन भी कह आया था कि जो मुफ्त में ना पढ़े बेटा तुम्हारी ये "बेस्ट सेलर" तो हमारा नाम भी छज्जन लाल नहीं। उसकी भौकाली वहाँ तो चली नहीं अब जो मोहतरमा से किताब की व्यवस्था हो जाए तो बात बने। पर छुट्टन को उससे पहले टांगों की सहूलियत का जुगाड़ करना पड़ेगा। रात की चादर आलस लपेटे अब पूरे बस पर पसर चुकी थी । बस कंडक्टर द्वारा उद्घोषणा हुई कि आगे छोटे से सराय पर बस रुकेगी काहे की बस में कौनो ख़राबी सी लग रही है और उसमे रिपेयरिंग की जरूरत है। सारे यात्रियों की रुकने की व्यवस्था कर दी गई है। लो! ये नई मुसीबत, अरे तीन घंटे और काट लेते तो गंतव्य तक पहुंच जाते पर इस बस ने इस सफर को और सफरिंग बना दिया था। जो सो गए और कोई लूट पाट कर गया तो क्या हो? छुट्टन ने एक सहयात्री से बारी बारी सोने का सेटलमेंट तो कर लिया था। सामने मोहतरमा ने तो बैठे बैठे अडवांस में नींद पूरी कर अपने बैग को सीट के उपर से निकाल रात के भोजन की तैयारी भी कर ली थी। " बेस्ट सेलर " अब दोनों सीट के बीच में पड़ी हुई थी। छुट्टन का रोग ऐसा की सफर में खाना हज़म ना होता और नींद ढंग से आती नहीं। अब रात काटने के लिए प्रतिष्ठा के साथ किताब मोहतरमा से प्राप्त करने का धांसू आइडिया आया छुट्टन को।

खाना खत्म करके ज्योंही मोहतरमा खड़ी हुई बैग रखने छुट्टन ऐसे लपके जैसे बैग संग उड़न छू हो जाएंगे।

" लाइये हम रख देते है उपर .. आप काहे तकलीफ ले रहीं है"

मोहतरमा भी जवाब में बढ़िया वाला मुस्कान दे कर बैठ गईं। किताब की ओर नज़र गड़ाए हुए छुट्टन बोला 

" क्या लगता है आपको? है उस लायक जितना हो हल्ला मचा रखा है "

" जी! हमसे कहा?.. समझे नहीं"

"अरे हम इस किताब का पूछ रहे हैं "

" आप खुद ही पढ़ कर देख लीजिए.. हम वैसे भी दुबारा पढ़ रहे थे"

दुबारा पढ़ रही थीं मोहतरमा। जिसका दो ही मतलब है या तो सच में इस किताब में वो बात है या मोहतरमा के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। खैर अब जो मिल गई है पढ़ लिया जाए। छुट्टन किताब लेकर सीट पर अभी बैठा ही था कि बस वाले लोग चांय चांय करने लगे, सराय आ चुका था। सबको उतरने की होड़ लगी हुई थी। 

साफ साफ दिख रहा था वह कोई सितारों वाला होटल नहीं बल्कि चार कमरों का यात्री धर्मशाला था और पास में ही एक मंदिर नजर आ रहा था। छोटी सी चाय की दुकान जिसने हमारी आपदा को अवसर बना कर फटाफट चूल्हा सुलगा लिया था। सारे यात्री अलग अलग कमरों में हो लिए। छुट्टन ने सोचा अब खाट पर लेट कर थोड़ा किताब पढ़ी जाए पर वही चांय चांय फिर शुरू हुई कि रोशनी आंख पर आ रही है और नींद में बाधा पहुंच रही है। जाने कौन से ज़माने का कुंभकर्णी नींद लेकर चलते है सब। अब अंधेरे में दिमाग वापस वही दौड़ गया जहां छुट्टन नहीं चाहता था। जिंदगी से जद्दोजहद और यह बस की ठेलमठेल, कभी ऐसा तो नहीं चाहा था। सपना था खुद भी एक दिन बढ़िया वाली किताब लिख कर ऐसे ही रातों रात चमकता सितारा बनना।

पर पिताजी ने साफ कह दिया था " ये झोला ले कर कविताएं करने से पेट नहीं भरत है भईया, कुछ काम सीख लो.. दुकान पर आ जाओ। हम और तुम्हारे भईया रगड़ रहे हैं और तुम्हें पुस्तक लिखनी है " 

..सही तो कहे पिताजी 'छज्जन लाल' कहीं सुना है ऐसा कोई लेखक का नाम? सबने मना ही किया सिवाय रंगीली के।

रंगीली जैसा उसका नाम बिल्कुल वैसी ही रंगीन सी। जाने उदासी नामक पँछी उसके इर्द गिर्द घूमता ही नहीं। खैर नाम का असर होना होता तो हम भी अपना नाम छुट्टन से प्रेमचंद रख लेते, पर होना कुछ नहीं था।

" छुट्टन! इतना निराशावादी काहे हो बे " बेबाक बात करती थी रंगीली.. मोहल्ले वाले छुटकी डॉन कहते उसे।

निराशावादी नहीं था छुट्टन बस उसकी आशाओं के पंख तुरंत कुतर दिए जाते थे। रोज लिखता कुछ ना कुछ और पुराने मन्दिर के पीछे पेड़ के पास रंगीली को सुनाता था। रंगीली बड़े धैर्य से सुनती थी। छुट्टन कभी कभी उकता जाता था " रंगीली! खुद ही काहे नहीं पढ़ती, एक तो हम लिखे फिर तुम को बांच कर सुनाए?"

" देखो छुट्टन! आ गया ना स्टार वाला एटिट्यूड? हैं!.. हमसे ई पढ़ना लिखना नहीं होता है.. इतना पढ़ना होता तो कहीं कलक्टर होते हम। जो तुम बांच सको तो बोलो वर्ना हमे और भी काम है।"

छुट्टन हाथ पकड़ कर रंगीली को रोक लेता था। एक वही तो थी जो उसे प्रोत्साहन देती थी। सुनते सुनाते कब दिल के तार जुड़ गए पता ही ना चला।

" ए छुट्टन! गलत जगह दिल लगा लिए यार तुम .. हम तो बहती हवा है कहाँ बांधोंगे? और इस गांव में तो हमे कोई अपनी बहु ना बनाए.. तुम ठहरे कलाकार आदमी कहां किन समस्याओं को न्यौता दे रहे हो? गोलियां चल जायेंगी.. बामन के लड़के हो। हमारा दिल तो झेल लेगा तुम छलनी हो जाओगे "

उस शाम आखिरी बार छुआ था उसे। मुस्कराती हुई चली गई। फिर कभी ना आई। सुनने में आया दूसरे गांव चली गई अपनी बुआ के घर और वही से शादी कर के कलकत्ता बस गई। पता था छुट्टन को यह सब उसने छुट्टन को बचाने के लिए किया था। पर छुट्टन कहाँ बच पाया। रंगीली के संग संग चले गए उसके जीवन के बचे खुचे रंग। अब नहीं लिखता था, लिखे भी तो किसके लिए? कौन पढ़ेगा? शाम होते होते उसे रंगीली की यादें सताने लगती थी। अंधेरे से आवाज चीरते हुए आती थी " ए छुट्टन बड़े निराशावादी हो बे "

" हाँ है हम निराशावादी! पर पलायनवादी तो नहीं "

छुट्टन जोर से चीख पड़ा। विचारो के आसमान से यथार्थ के धरातल पर पटकी हुई आवाज बाकी सोये हुए लोगों के नींद को खराब कर गई।

छुट्टन दौड़ कर बाहर निकल आया था। दम घुट रहा था उसका वहाँ।

यह रात तो सुरसा जैसे बड़ी होते जा रही है। कौन मनहूस घड़ी में बस पकड़े थे। बड़बड़ाते हुए छुट्टन बाहर चाय की दुकान पर आ गया।

" एक कड़क चाय बनाओ बाबू जरा, नींद उड़ा दे ऐसी!"

" दो बनवा लीजिए! काहे की नींद तो आपने उड़ा ही दी है " 

छुट्टन ने पीछे मुड़ कर देखा वही मोहतरमा थी किताब वाली। 

" जी माफ कीजिए.. वो हम जरा विचारो में..." 

" अरे अरे.. एक कप चाय ही तो बोले आपसे और आप माफी की बौछार लगा दिए " कहकर खिलखिलाने लगी थी वह। 

छुट्टन ने देखा उसकी हँसी जैसे रंगीली की तरह साफ, सरल और एकदम असली। 

चाय वाले को दो कप का बोलकर दोनों बेंच पर बैठ गए। 

" आप.. ऐसे अकेले कहां सफर कर रही है? मतलब हम उस मतलब से नहीं बोल रहें है कि आप औरत है तो नहीं सफर कर सकती.. बस यूँ ही.." 

" हमे अकेले ही सफर करना पसंद है..इसमे अलग खूबसूरती है.. आपको किसी के साथ कोई समझौता नहीं करना पड़ता है, कोई इजाजत नहीं, कोई रोकटोक नहीं .. बस निकल पड़े आजाद पंछी की तरह। दरअसल हम एक फोटोग्राफर हैं , यहां वहाँ घूम कर अच्छी तस्वीरे लेते रहते हैं। काम लायक पैसे आ जाते हैं और हमारा शौक भी पूरा हो रहा है।.. आप क्या करते है?.. लोगों की नींद उड़ाने के अलावा "

कहकर वह फिर खिलखिलाने लगी। 

छुट्टन को अब बस पकड़ने का निर्णय उतना भी बुरा नहीं लग रहा था। आज कई सालो बाद उससे कोई बात करने बैठा है। किसी ने उसे सुनना चाहा है। 

" जी हम लोगों की चैन की नींद का व्यवस्था करते है मतलब कि गद्दे का दुकान है। एक ब्रांडेड गद्दे की फ्रैंचाइजी लेनी थी उसी सिलसिले में पिताजी ने इस सफरिंग सफर पर भेजा था।" 

" वाह बढ़िया! मतलब दर्द भी देते है और दवा भी " मोहतरमा बोली। 

" आप भी तो, देते हो बुझी हुई आग को हवा भी " छुट्टन तपाक से बोले। 

" अरे वाह! जुगलबंदी? शायर है आप?" 

" हाँ.. था.. अब नहीं हैं।"

" कैसे नहीं है.. शायर तो मर कर भी नहीं मरा करते है और आप तो जिंदा है बाकायदा "

छुट्टन ऐसे देख रहा था जैसे कि किसी मुर्दे से आखिरी ख्वाहिश पूछी जा रही हो। 

" नहीं मोहतरमा! जिसके लिए शायरी करते थे वो वजह ही नहीं बची। "

" और वो वजह अगर यही चाहती होती तो.. कहीं वो अब भी यही चाहती होगी तो.. वजह यूँ ही बेवजह ना तो आती है ना ही जाती है.. अब आपके निराशा के पीछे की वजह तो आप ही जाने " कहकर वो सराय के अंदर चली गई। छोड़ गई छुट्टन को फिर उसी जलती यादो के ज्वालामुखी के मुहाने पर। 

बस कंडक्टर की आवाज पर तन्द्रा टूटी तो सारे वापस अपनी अपनी सीट पकड़ने को आतुर दिखे। 

रात अभी बाकी थी। जाने हर रात उकता देने वाली रात आज छुट्टन को भा रही थी। लग रहा था जैसे सीने पर रखा कोई पत्थर हल्का हो चला है। पर उसकी किस्मत को उससे दुश्मनी ही थी जो बस जल्दी रिपेयर हो कर आ गई। छुट्टन अपनी सीट पर बैठा तो सारी झुंझलाहट जा चुकी थी। अब ना तो उसे पैर फैलाने को जगह कम लग रही थी और ना सफर उबाऊं। खिड़की से आती हल्की हवा ने पलकों को भारी कर दिया और वह सो गया बैठे बैठे ही। जैसे जन्मों से जगा हुआ बच्चा माँ की लोरी सुन कर सो जाता है ठीक वैसे ही। कानो में रंगीली की जैसे फुस्स से कह गई हो " शाबाश! छुट्टन.. बहुत बढ़िया बे, इहे तो हम चाहते थे "। 

किसी ने कन्धे पर हाथ रखा तो झटके से नींद खुली तो देखा कि साथ वाली मोहतरमा बैग लिए खड़ी थी। 

" जी हमारा सफर यही तक साथ था.. वैसे भी हम अकेले ही सफर करते हैं.. उम्मीद है आप भी अब सफर आनंद से खत्म करेंगे। और यह किताब आप रख लीजिए, हम पढ़ चुके हैं। "

एक साँस लेकर वह फिर बोली 

" आप लक्ष्य के पक्के है बस निराश जल्दी हो जाते हैं.. हमने देखा शुरू से ही आपका लक्ष्य किताब को पाना था.. कोई दूसरा होता तो शायद हम पर ट्राई करता, सेट करता पर आप जनाब आपका किरदार हमे पसंद आया, यूँ ही ज़ज्बा बनाए रखिए और अपनी लिखी किताब हमे भिजवा दीजियेगा, हम जरूर पढ़ेंगे "

कहकर मोहतरमा बस से उतर गईं। 

" अरे हम .. पर आपको.. आपका नाम तो बता दीजिए?" छुट्टन जैसे कि चाहता था कि वह कह दे की हम रंगीली ही है.. पहचाना नहीं। 

" नाम में क्या रखा है जनाब! आप किताब पढ़िए, हमसे फिर कभी बात करियेगा.. जिंदगी रही तो फिर मिलेंगे "

बस चल पड़ी ।छुट्टन उसे आँखों से ओझल होने तक देखता रहा। किताब के पन्नों को पलटते हुए नीले स्याही से कुरेदे नाम पर पड़ी "खुशी"। 

छुट्टन के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। जिंदगी में जैसे अभी कई स्टॉप आने बाकी है। आज उसे लग रहा था कि काश! बस का आखिरी स्टॉप कभी आए ही नहीं। रंगीली से बिछड़ने के बाद आज पहली बार उसे ऐसी खुशी मिली थी। वह मन ही मन बुदबुदाया " देखना! फिर मिलेंगे "।



2 likes

Published By

Sushma Tiwari

SushmaTiwari

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • indu inshail · 4 years ago last edited 4 years ago

    I fallen in love with your writing skills. It was like I am travelling with छुट्टन. Reading this story was fun and inspiring too.

  • Sushma Tiwari · 4 years ago last edited 4 years ago

    Thank you so so much dear indu ❤️❤️💝

  • Babita Kushwaha · 4 years ago last edited 4 years ago

    वाकई बहुत अच्छी कहानी

  • Sushma Tiwari · 4 years ago last edited 4 years ago

    Thanks dear @babita 💝

  • Kusum Pareek · 4 years ago last edited 4 years ago

    बहुत अच्छी कहानी

  • anil makariya · 4 years ago last edited 4 years ago

    इस कहानी का अंदाजे बयां अच्छा लगा । कहानी में दिलचस्पी बनते ही कहानी खत्म हो गई । कुछ कहानियां लंबी अच्छी लगती है ।

  • Sushma Tiwari · 4 years ago last edited 4 years ago

    शुक्रिया दी

  • Sushma Tiwari · 4 years ago last edited 4 years ago

    @anil Makariya जी, हाँ सही कहा.. और बढ़ा सकते हैं इसे 😊

Please Login or Create a free account to comment.