वो उस विशालकाय और एकमात्र दरवाजे के सामने स्तब्ध और विस्मित खड़ा था। अब ये कैसी दुविधा है? भला आगे कैसे बढ़ा जाए। यहां तो कोई धर्म चिह्न तक अंकित नहीं है। कैसे पहचान होगी कि यह दरवाजा मेरे लिए है कि नहीं ? और बाकी दरवाजे कहाँ गए उनका भी कुछ पता नहीं।
" अंदर आ जाओ?" उस पार से आवाज आई।
" कैसे आ जाऊँ? मैं कैसे मान लूँ की यही सही दरवाजा है?" जीवन भर की मेहनत का प्रश्न था आखिर।
" हा हा हा! यही है और एक ही है!" अट्टहास की ध्वनि उसके मस्तिष्क को बिंध गई।
" जीवन पर्यंत मैं अपने धर्म की कट्टरता को बनाए रखने के लिए धर्म के अर्थ को भी ताक पर रखता गया और आज आप कह रहे हैं कि मृत्यु के पश्चात यहां उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है, ये कैसे हो सकता है?"
" देखो मनुष्य! हम तुम्हें जिस सुक्ष्म प्राण के रूप में धरती पर भेजते है ठीक उसी सुक्ष्म प्राण के रूप में वापस लाते है, तुम्हारा धर्म बस अपनी आत्मा के भीतर सच्चाई और अच्छाई का संरक्षण करना था। हमने ना कोई धर्म भेद कर निर्मित किया और ना ही मृत्य उपरांत यहां कोई व्यवस्था है "
अब दरवाजे में प्रवेश से पहले जीवन पर्यंत ढोया हुआ धर्म के टैग वाला टोकरा वहीं खाली करना ही पड़ा।
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