" भारी बारिश से शहर की सड़के हुई लबालब, गलियां नालों में तब्दील हुई "
टीवी एंकर जोर जोर से चिल्ला रही थी जिसकी आवाज़ मेरे खिड़की के उपर लगे टीन के पत्रे पर गिरती बारिश की बूँदों से मिलकर और डरावनी लग रही थी । मैं जोर से हँस पड़ा। बस! एक दिन बारिश का पानी इकट्ठा क्या हुआ इनलोगों ने नाला नाम दे दिया। मेरी जिन्दगी एक दिन नहीं झेल पाए? हा.. हा.. हा.. अरे ये क्या जाने नाला क्या होता है। मुझे पता है। वही तो मेरा कार्यस्थल है जैसे ये लोग ऐसी ऑफिस में बैठते हैं ना बिल्कुल वैसे ही मेरा ऑफिस। हाँ कभी इस नाले में तो कभी उस नाले.. इन सब का जिंदगी उस गन्दगी से बाहर निकालता हूं।
" अरे आज काम पर नहीं जाएगा क्या ?"
पत्नी की आवाज से गौरवमय सोच से बाहर आया।
" वो देख ना टीवी में.. लगेले है सब साहेब लोग काम पर.. अभी आएगा फोन तो जाएगा मैं भी ऑफ कैमरा "
" कितनी बार बोली मैं.. छोड़ क्यूँ नहीं देता ये काम तू.. कुछ और देख ले ना "
पत्नी चाय थमाते हुए बोली।
" क्या? मिनिस्टर बन जाऊँ.. कुछ भी बोलती है.. अरे यही अपन लोग का काम है, पुश्तों से.. देख जब मैं छोटा था ना तो मेरे को भी लगता था कि मै कुछ अलग करेगा.. पापा जैसे गंदे नाले में नहीं उतरेगा, पर जानती है ये सोचने की भी ताकत किधर से आती थी.. पापा जो करते थे ना, नाला साफ करने की सरकारी नौकरी, उसी से मिलने वाली ऐश से। हमारे मजे होते थे ना, स्कूल भी गए, खूब पढ़ाई की.. तेरे को मालूम है मैं स्वीमिंग भी सीखा.. समन्दर में तैरने के वास्ते! पर अपना नसीब मतलब नाला, अभी इसी में तैरता है.. हा.. हा.. हा। "
" हाँ हाँ जा हँस ले.. पर उम्मीद तो रख सकती है मैं भी समंदर की.. चल तू फोन का इन्तेज़ार कर, मैं जाती काम पर "
पत्नी चली गई काम पर। मुझे मालूम था उसे पसंद नहीं मेरी यह नौकरी पर क्या करे मेरी सरकारी नौकरी उसके पापा के लिए बहुत मायने रखती थी तो बँध गई बिचारी मेरे पल्ले। कई बार रात को बोलती थी
" ए सुन ना तेरे बदन से बास आता है गटर जैसा.. अच्छे से नहाया कर.. कोई बीमारी हो जाएगा "
बास तो आएगी। मैं गन्दगी के अथाह समुद्र में तैरता हूं। जहां आम आदमी नहीं जाता मैं वहाँ तक जाता हूँ। वो बास अब मेरी बास है। मुझे खुशबु लगती है। मेरा अपना लोक और मैं वहाँ का ईश्वर।
" ए चंद्रु! उधर मेन रोड वाले खुले नाले में एक डाक्टर साब गिर गया है.. जल्दी आ "
लो आ गया ईश्वर का बुलावा।
ताला मार कर फटाफट जगह पर पहुंचा तो देखा कि लोगों की भारी भीड़ और मेरे से पहले सारे न्युज वाले। सब खड़े कैमरा फोकस कर के नाले के उपर.. पर कोई नहीं उतरा उसमे.. अपने तारणहार का इन्तेज़ार कर रहे थे। मुझे देखते ही डाक्टर का बेटा मेरी ओर लपका।उसकी आँखों में शहर का सारा समन्दर उमड़ा पड़ा था।
" प्लीज मेरे डैड को बचा लो.. आई बेग यू.. जो मांगोगे दूँगा.. बस उन्हें वापस ले आओ "
मेरे को बहुत हँसी आई और रोना भी। सोचा बोल दूं भाऊ ये मेरा लोक है। मेरे अलावा कोई जिंदा नहीं रह सकता उस गन्दगी में। भारी बारिश के बहाव में जाने किधर बह निकले होंगे डाक्टर साब। लाश भी मिल गई तो नसीब। फिर चुप कर के नाले में उतर गया। कुछ नहीं मिला अंदर सिवाय शहर भर के प्लास्टिक के कचरे के अलावा। बाहर निकल कर हाथ हिला कर नहीं का इशारा कर मैं वापस आ गया।सब मायूस होकर शहर के नालों को कोसने लगे। कोसो! मेरा क्या? जब कचरा देते हो तो उम्मीद करते हो कि वापस ना दे और इंसान गया तो तुमको वापस चाहिए? हूंहहह..
बुरा लगता है मेरे को भी। एक बार तीन साल का बच्चा गिर गया था। सच उस दिन मैं गहराईयों तक जाने कहां कहां तक गया। दिल से इच्छा थी कि वो सही सलामत बच जाए। अपने बच्चे का जिंदगी में क्या जगह होता है मैं समझ सकता हूँ। नहीं नहीं मेरे बच्चे सही सलामत है पर उनकी माँ की तरह उनको भी मेरे काम से शर्म आती है। स्कूल में शर्म आती उनको बताने में की उनके पापा नाले में घुसते है। पर मुझे शर्म नहीं आती है। मेरा काम मैं ईमानदारी से करता हूं और इसकी गवाही मेरे बदन से आती बदबू देती है। आज पूरा शहर नाला-नाला हुआ है तो पूरा शहर अपना-अपना लग रहा है। क्यूँकी ये नाला ही तो मेरी जिन्दगी है।
" मजा करो भाई लोग... आज पूरा शहर अपन का है "
ब्रिज पर खड़ा मैं जोर से चिल्ला पड़ा।
©सुषमा तिवारी
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