चलते - चलते मेरे कदम और भारी हो चले थे। मन पर लदा बोझ शरीर शिथिल कर गया था । बीती कई रातों के स्वप्न में मुँह मोड़ कर जाते मेरे बापू दिखते हैं जिसके कारण मन बेचैन हुआ पड़ा है। मेरी गलती भी क्या है? स्वतंत्रता सेनानी रहे दादाजी से विरासत में मिली सत्य, अहिंसा और ईमानदारी की सीख को जीवित रखने के लिए जीवनपर्यंत अंतर्मन से स्वयं भी युद्ध करते आया हूं। कल की मुखिया जी की बातों ने किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया था।
" देखिए मोहन बाबू! आपको कुछ नहीं करना है, हम सिर्फ आपके शौचालय की तस्वीर लेंगे। आपको आधे पैसे मिल जाएंगे "
मुखिया जी मुझसे उस शौचालय की बात कर रहे हैं जिसे गांव में बिना किसी सरकारी अनुदान के मैंने बहुत ही मेहनत से बनवाया था। आर्थिक अभाव कभी मेरे सिद्धांतो पर भारी नहीं पड़े थे।
" आप जानते है यह गलत है "
" क्या फर्क़ पड़ता है? अब आप ही बताइए क्या दिया है सरकारों ने आपको आपकी वंशानुगत ईमानदारी का फल? आप नहीं करेंगे बाकी लोग तो कर ही रहें है.. आप अपना हक समझिए बस "
मुखिया जी की कुटिल मुस्कान लिए लौटने के बाद धर्मपत्नी का भी यही कहना था कि आप मत रखियेगा पैसे, अम्मा को दे दीजियेगा। वह कोई तीर्थ कर आएंगी।
ऐसा लगा मेरे सिद्धांत मेरे आर्थिक अभाव के आगे बलहीन हो रहे हैं।
गंतव्य स्थान पर मुखिया जी की कुटिल मुस्कान वहीं खड़ी जैसे स्वागत में की आखिर आ ही गए।
" मोहन बाबू! बिलकुल सही निर्णय लिया आपने जो खुद ही आ गए"
" जी मुखिया जी! सही निर्णय ही लिया है। आप सही थे दादा जी ने स्वतंत्रता संग्राम लड़ा था और भला मेरा क्या योगदान रहा? तो आज से यहां मैं अपनी आँखों के सामने गरीब जनता का पैसा आपको यूँ लूटने नहीं दूँगा। अब भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए स्वतंत्रता संग्राम छेड़ने का समय आ गया है।"
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बहुत बढ़िया
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